श्रीराम चौलिया : अफगानिस्तान पर तालिबान (Taliban) के दोबारा कब्जे को साल भर बीत गया। सोमवार को तालिबान ने इसका जश्न भी मनाया, हालांकि यह अवधि किसी भी दृष्टि से संतोषजनक नहीं रही। समय के साथ तालिबान में बदलाव से जुड़ी धारणाएं ध्वस्त होती गईं। तालिबानी भले ही अपने शासन का आदर्श इस्लामी राज्य के रूप में गुणगान करें, लेकिन आम अफगान लोगों की पीड़ा वास्तविकता बता देती है। चार करोड़ अफगान नागरिकों का जीवन तालिबान के सत्ता में आने के बाद बद से बदतर हो गया है। देश की 90 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे आ गई है। कुपोषण कहर बरपा रहा है। बेरोजगारी से लोग बेहाल हैं। सार्वजनिक जीवन में महिलाओं को बड़ी मुश्किल से जो अवसर मिले थे, वे उनके हाथ से फिसल गए हैं।

समस्त समाज त्रस्त है। देश विकास के पैमाने पर कई दशक पीछे चला गया है। इतने गंभीर मानवीय संकट की स्थिति में कुछ प्रश्नों का उभरना स्वाभाविक है। आखिर 'विशुद्ध इस्लामी अमीरात' की बलपूर्वक स्थापना का हासिल क्या है? भूखे पेट और निराश-हताश मन की स्थिति में सख्त शरई कानून और असहिष्णु मजहबी प्रतिबंधों से क्या लाभ है?

तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद तालिबान ने अपने विरुद्ध कोई जन आंदोलन या विद्रोह नहीं होने दिया। जबकि इस व्यवस्था से पिंड छुड़ाने की भावना अफगान समाज में विद्यमान है। यहां तक कि पश्तून समुदाय, जो वहां सबसे बड़ा जातीय समूह है और जिसका एकमात्र प्रतिनिधि होने का दावा तालिबान ने सदैव किया है, वह भी नई गैर-समावेशी राज्य प्रणाली से निराश है। सामाजिक स्तर पर शासन की वैधता न्यून है। यही कारण है कि तालिबान ऐसा परिवेश नहीं बना सका, जिसमें देश का सतत एवं समग्र विकास संभव हो।

बीते एक वर्ष में तालिबान की प्रशासनिक अक्षमता भी प्रकट हुई है। आप 21वीं सदी में राज्य का संचालन कट्टर मजहबी विचारधारा और बंदूक की धमक से नहीं कर सकते। यह 19वीं सदी का वह समय नहीं जब फ्रांस के प्रसिद्ध राजनयिक चार्ले तालीरों ने कहा था कि, 'आप संगीनों के साथ अपनी पसंद का कुछ भी कर सकते हैं, सिवाय उन पर बैठने के।'

गत वर्ष 15 अगस्त को जब तालिबान ने काबुल पर दोबारा कब्जा किया तो कई टिप्पणीकारों ने अनुमान लगाया था कि इस बार एक नया और सुधरा हुआ तालिबान दिखेगा। तब भी सवाल उठे थे कि क्या यह जिहादी तंजीम अपनी अतिवादी मानसिकता त्यागकर व्यावहारिक जरूरतों के आधार पर देश को चला पाएगी? साल भर बाद साफ है कि नए तालिबान और पुराने तालिबान में कोई फर्क नहीं, बल्कि वह पहले से कहीं अधिक रूढ़ि‍वादी एवं प्रतिक्रियावादी हो गया है।

हालांकि तालिबान के भीतर भी सब कुछ सहज-सामान्य नहीं। उसमें गुटबाजी हावी है। इसकी मुख्य वजह है सत्ता हथियाने के बाद इन गुटों में देश की भावी दिशा को लेकर मतभेद होना। लड़कियों की शिक्षा, विदेशी आतंकी संगठनों को पनाह और पाकिस्तान के साथ संबंध जैसे अहम मुद्दों पर तालिबान में आमराय नहीं है। हालांकि हक्कानी गुट और कंधारी गुट, उदार खेमा बनाम कट्टर खेमा आमने-सामने हैं, फिर भी कट्टरपंथी ही हावी हैं, क्योंकि किसी टकराव की स्थिति में सर्वोच्च तालिबानी नेता मुल्ला हिबतुल्लाह अखुंदजादा का झुकाव अमूमन कट्टरपंथियों की ओर होता है।

भले ही स्थानीय समुदाय की ओर से तालिबान के लिए कोई मुश्किल न खड़ी हो रही हो, लेकिन आइएस-खुरासानी गुट उसके लिए चुनौती के रूप में उभर रहा है। आइएस-खुरासान तालिबान की परवाह किए बिना शिया, सिख और तालिबानी नेताओं पर हमले जारी रखे हुए है। इस कारण भी तालिबान पर दबाव है कि वह अपनी कट्टर विचारधारा में कोई ढील न दे। इस कट्टरपंथी प्रतिस्पर्धा में निरपराध अफगान जनता पिस रही है।

अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने से आतंकियों के हौसले बढ़े हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असुरक्षा एवं अस्थिरता की आशंका बलवती हुई है। ज्यादा दिन नहीं बीते जब अलकायदा का सरगना अयमान अल-जवाहिरी काबुल के बीचोबीच स्थित इलाके में मार गिराया गया। इतने दुर्दांत और वांछित आतंकी को किसी और ने नहीं, बल्कि तालिबान के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी का संरक्षण मिला था। उसकी मौत के बाद सभी साक्ष्य मिटा दिए गए।

संयुक्त राष्ट्र निगरानी टीम की नवीनतम रिपोर्ट भी यही दर्शाती है कि भारत विरोधी पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर और जैश के दस्ते अफगानिस्तान में तैयार हो रहे हैं। यानी तालिबानी नेताओं के वे दावे फर्जी हैं कि उनकी धरती आतंक की विषबेल को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल नहीं हो रही। विश्व समुदाय को दिया गया उनका आश्वासन बेमानी सिद्ध हुआ कि वह अफगानिस्तान में आतंक को नहीं पनपने देंगे। वास्तविकता तो यही है कि पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध सक्रिय तहरीक-ए-तालिबान यानी टीटीपी ने भी अफगानिस्तान में अपनी जड़ें मजबूत की हैं। यहां मिल रही सुविधाओं से उसने पाकिस्तान के खिलाफ अपनी लड़ाई को नए तेवर दिए हैं। टीटीपी की बढ़ी ताकत से इस्लामाबाद हैरत में है। मामला इतना बिगड़ गया कि पाकिस्तानी वायुसेना को अप्रैल में अफगानिस्तान के भीतर बमबारी करनी पड़ी। उसमें तमाम आम लोग भी मारे गए।

पिछले साल तालिबान के काबुल पर काबिज होने के बाद पाकिस्तानी अधरों पर मुस्कान बिखरी थी, लेकिन अब उसकी पेशानी पर बल पड़ने लगे हैं। पाकिस्तान का रचा तालिबान उसके लिए भस्मासुर बनता दिख रहा है। अफगानिस्तान में बने नए समीकरणों से उपजे नकारात्मक संकेतों के बावजूद नई दिल्ली ने काबुल की ओर से मुंह नहीं फेरा। भारत ने मानवीय आधार पर इस पड़ोसी देश को खाद्यान्न से लेकर दवाओं तक हरसंभव मदद पहुंचाई। इस मदद को जरूरतमंदों तक पहुंचाना सुनिश्चित करने के लिए उसने कुछ संकोच के साथ ही सही, लेकिन तालिबान से संपर्क भी साधा।

अफगानिस्तान में भारत के व्यापक हित निहित हैं और उनकी पूर्ति के लिए दस महीनों के बाद जून में उसने अपना स्थायी ठिकाना वहां फिर खोला है। हालांकि काबुल में राजनयिक उपस्थिति का यह अर्थ कतई नहीं कि हम तालिबान सरकार को मान्यता दे रहे हैं। भारत का रुख बस यही संकेत दे रहा है कि वह अफगान जनता का हमदर्द-हिमायती बना रहेगा। परिस्थितियां भारत के कितनी ही विपरीत क्यों न हों, वह सदैव अफगानिस्तान का हितैषी बना रहेगा। पारंपरिक रूप से अफगानियों के दिल में भारत के लिए हमेशा एक नरम कोना रहा है। नई दिल्ली की निरंतर मदद से उन्हें यही दिलासा मिलेगा कि घोर विपदा की घड़ी में भारत उनके साथ खड़ा है। इन्हीं सद्भावनाओं से भारत अफगानिस्तान में अपने हितों की पूर्ति करने और चीन-पाकिस्तान के कुचक्र को तोड़ने में सफल हो सकेगा।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)