विचार : आरएसएस का शताब्दी वर्ष, राष्ट्र निर्माण के प्रति संकल्पित संघ
संघ का मानना है कि व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि वह अपने राष्ट्र को किस दिशा में ले जाना चाहता है और उसमें उस व्यक्ति का क्या योगदान हो सकता है। संघ अपने स्वयंसेवकों को भारत-बोध से अनुप्राणित करते हुए निष्काम कर्म और निस्वार्थ सेवा करने की प्रेरणा देता है। यह जीवन में अध्यात्म के समावेश से ही संभव है।
प्रो. रसाल सिंह। वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में आद्य सरसंघचालक डा. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-आरएसएस अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। संघ की स्थापना का मुख्य ध्येय हिंदू समाज को जागृत और संगठित करते हुए राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक गौरव का विकास करना था। दैनंदिन शाखाओं के माध्यम से अनुशासन और चरित्र-निर्माण पर बल देते हुए व्यक्तिव विकास और सामाजिक संगठन को समर्पित संघ आज विश्व का सबसे बड़ा और प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बन गया है।
संघ की शताब्दी यात्रा संघर्ष, सेवा, समर्पण, संगठन और संस्कारों से परिपूर्ण रही है, जिसका व्यापक प्रभाव भारतीय समाज में देखा जा सकता है। इस सगंठन ने समाज सेवा, स्वदेशी, शिक्षा, ग्राम-विकास, आपदा-राहत, वनवासी कल्याण और सामाजिक समरसता आदि अनेक क्षेत्रों में निरंतर काम करते हुए सकारात्मक बदलाव लाने का सराहनीय प्रयास किया है। संघ की विचारधारा सभी को साथ लेकर चलने एवं समरसता पर केंद्रित रही है। इसका उद्देश्य व्यक्तियों में नैतिकता, कर्तव्यबोध और नेतृत्वक्षमता विकसित करना है। संघ अपने स्वयंसेवकों को एक राष्ट्रीय दृष्टि देता है।
संघ का मानना है कि व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि वह अपने राष्ट्र को किस दिशा में ले जाना चाहता है और उसमें उस व्यक्ति का क्या योगदान हो सकता है। संघ अपने स्वयंसेवकों को भारत-बोध से अनुप्राणित करते हुए निष्काम कर्म और निस्वार्थ सेवा करने की प्रेरणा देता है। यह जीवन में अध्यात्म के समावेश से ही संभव है।
आरएसएस के अनुसार, हिंदुत्व एक मत/पंथ नहीं, बल्कि एक सभ्यता, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना है। डा. हेडगेवार ने हिंदू को उस व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया, जो भारत को अपनी मातृभूमि और संस्कृति के रूप में स्वीकार करता है। संघ विविधताओं का सम्मान करते हुए उनमें एकता के सूत्र ढूंढ़ने के लिए समर्पित और संकल्पित है। इस सबसे बड़े सामाजिक संगठन ने हिंदुत्व को एक समावेशी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में देखा है, जिसमें सारे भेदभाव से ऊपर उठकर भारत की सांस्कृतिक एकता और अखंडता को महत्व दिया गया है।
इसका यह भी मानना है कि हिंदू राष्ट्रवाद भारत की बहुसंख्यक हिंदू संस्कृति और मूल्यों पर आधारित है, लेकिन इसका उद्देश्य किसी भी समुदाय की उपेक्षा या अवहेलना करना नहीं, बल्कि सभी को भारतवासियों के रूप में संगठित करना है। पिछले दिनों दिल्ली में सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने हिंदुत्व के समावेशी स्वरूप पर जोर देते हुए कहा कि संघ के हिंदुत्व का मतलब स्वीकार और समावेशिता है, न कि बहिष्कार और विरोध। समरसता, सद्भाव और सहअस्तित्व हिंदू जीवन पद्धति की मूल पहचान है। इसमें मुस्लिम तथा अन्य मतावलंबियों के प्रति भी सहज स्वीकार्यता का भाव है।
शताब्दी वर्ष में संघ का समाज में “पंच परिवर्तन” लाने पर विशेष ध्यान है। इसमें सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, कुटुंब प्रबोधन, स्वदेशी जीवनशैली और नागरिक कर्तव्य शामिल हैं। सामाजिक समरसता का आधार संघ की समावेशी राष्ट्र और समाज की अवधारणा है। यह अवधारणा जातीय भेदभाव से मुक्त समानता पर आधारित समरस समाज के निर्माण की है। स्वदेशी के अंतर्गत अपनी चेतना को भारतीय मनीषा के अनुरूप ढालने पर बल है। आर्थिक रूप से अपने राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए स्वदेशी सामानों का ही उपभोग करना चाहिए। स्व का बोध और स्व के प्रति गौरव का भाव ही हमें औपनिवेशिक दासता से सच्ची और पूरी मुक्ति दिला सकता है। अपने भाषाई स्वबोध को जागृत करके ही एक आत्मनिर्भर और स्वतंत्रचेता राष्ट्र बना जा सकता है।
आज पर्यावरण संबंधी समस्याओं और आपदाओं से दुनिया के देश भी पीड़ित हैं। भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है। आज हमें विकास के ऐसे माडल को विकसित करना है, जो प्रकृति का सहगामी और सहकारी हो। इसीलिए संघ पर्यावरण संरक्षण पर जोर दे रहा है। कुटुंब प्रबोधन का उद्देश्य संकटग्रस्त पारिवारिक-सामाजिक जीवन को बचाना है। परिवार भारत की सबसे बड़ी विशेषता और उपलब्धि रही है। व्यक्तिवाद और उपभोक्तावाद की पश्चिमी आंधी ने इसकी नींव की हिला दिया है। इस विकराल होती चुनौती को पहचानकर संघ प्राथमिकता के आधार पर इससे निपटने के लिए कृतसंकल्प है।
हम कर्तव्य-सचेत समाज की जगह अधिकार सचेत और आत्मकेंद्रित समाज बनते जा रहे हैं। हमारे समाज में हम सारे काम सरकार के ऊपर छोड़ देते हैं। जबकि बिना नागरिक सहभागिता के सरकार भी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं कर सकती। बिजली-पानी आदि संसाधनों की बचत करना, राष्ट्रीय संपत्ति को क्षति न पहुंचाना, राष्ट्रीय पर्वों, प्रतीकों और संस्थाओं का सम्मान करना आदि कार्य दैनिक जीवन की देशभक्ति है। इन पंच-परिवर्तन से सामाजिक जीवन में अनुशासन, देशभक्ति और नागरिक सहभागिता बढ़ेगी। इससे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और राष्ट्रोन्नयन की आधारभूमि तैयार होगी।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कालेज में प्राचार्य हैं)
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