रसाल सिंह। नागरिकता संशोधन अधिनियम दिसंबर 2019 में संसद के दोनों सदनों में पारित हुआ था। चार वर्ष की देरी के बाद अंततः उसकी पात्रता और प्रक्रिया संबंधी विस्तृत नियमावली गत दिवस भारत के राजपत्र में अधिसूचित कर दी गई। इससे इस अधिनियम के क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त हो गया। यह मोदी सरकार की एक निर्णायक पहल है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक नागरिकता के नियम निर्धारित किए गए हैं।

26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होते ही ब्रिटिश भारत में जन्म लेने वालों को उसी दिन से भारत की नागरिकता मिल गई, लेकिन जो लोग पूर्व-रियासतों के निवासी थे, उनके लिए 1955 में नागरिकता कानून बनाकर उन सबको भारत की नागरिकता दी गई। इस कानून में समय-समय पर जैसे 1986,1992, 2003 और 2005 में गोवा, दमन-दीव और दादरा एवं नगर हवेली, पुडुचेरी आदि के अलावा बांग्लादेश और पाकिस्तान से भूमि विवादों को सुलझाकर भारत में मिलाए गए क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को भारत की नागरिकता देने के लिए संशोधन किए गए। इसी क्रम में मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में मजहबी आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यकों-हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय को भारत की नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 पारित हुआ।

राजपत्र में अधिसूचित नियमावली में नागरिकता प्राप्त करने की तमाम अड़चनों को दूर करने के लिए जटिल प्रक्रिया का सरलीकरण किया गया है। यदि किसी के पास कोई प्रमाण पत्र नहीं है तो उसे भी शपथपत्र देकर अपनी पात्रता संबंधी घोषणा कर नागरिकता के लिए आवेदन करने की सुविधा होगी। इसी क्रम में ग्राम पंचायत, नगर पालिका अथवा नगर निगम आदि स्थानीय शासी निकायों द्वारा जारी प्रमाण पत्र को भी मान्यता प्रदान की गई है। जिलाधिकारी कार्यालय की जगह अब यह आवेदन केंद्रीकृत आनलाइन पोर्टल पर किया जा सकेगा।

पहले नागरिकता कानून में अभ्यर्थी द्वारा जमा किए जाने वाले मान्य दस्तवेजों की सूची बहुत सीमित थी। अब उसे काफी व्यापक बनाया गया है। इसका उद्देश्य पीड़ित लोगों को त्वरित लाभ देना है। नागरिकता कानून का कई दलों की ओर से खुलकर विरोध किया जा रहा है। यह मुस्लिम तुष्टीकरण की परंपरागत राजनीति के चलते ही है। कुछ राज्य सरकारों की ओर से भी नागरिकता कानून को अमल में लाए जाने का विरोध किया जा रहा है।

यह व्यर्थ का विरोध है, क्योंकि नागरिकता संघ सूची का विषय है। इस तथ्य से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी आदि अल्पसंख्यक समुदायों के साथ अमानवीय व्यवहार और उत्पीड़न होता है। इन मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों में जारी मजहबी प्रताड़ना के कारण भारत में विस्थापित लोगों की संख्या समय के साथ लगातार बढ़ी है।

अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए हुए नेहरू-लियाकत समझौते के अनुपालन में पाकिस्तान के असफल हो जाने पर वहां प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को स्वीकारना हमारा संवैधानिक दायित्व है। पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान और बांग्लादेश में जो लोग मजहबी कारणों से प्रताड़ित हैं, जिनका घर-बार सब छूट चुका है, क्या उन्हें सामान्य जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाए? क्या भारत को उन लोगों की उपेक्षा करनी चाहिए, जो विभाजन पूर्व उसके ही नागरिक थे और जिन्होंने अलग देश नहीं मांगा था?

उक्त तीनों देशों में अल्पसंख्यक जिस आस्था को अपने जीवन से अधिक मूल्यवान मानते हैं, उसी आस्था के कारण उन्हें अपमान, उपेक्षा और उत्पीड़न सहना पड़ता है। 75 साल पहले वे इसी देश के नागरिक थे तो स्वाभाविक है कि वे अपनी मातृभूमि भारत से ही शरण और सहायता की आशा करेंगे। एक सार्वभौम राष्ट्र के लिए इस समस्या का समाधान करने और अपने नैतिक दायित्व को पूरा करने का संवैधानिक समाधान आवश्यक था।

पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों (जो अवैध प्रवासियों के रूप में भारत में रह रहे हैं) के मानवाधिकारों की रक्षा-हेतु उन्हें नागरिकता प्रदान करने वाला यह कानून आवश्यक था। चूंकि तीनों पड़ोसी देश अपने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ रहे हैं, इसलिए भारत सरकार ने अपना कर्तव्य समझकर नागरिकता कानून में आवश्यक संशोधन किए। इस संशोधन का उद्देश्य मजहब के कारण प्रताड़ित उन अल्पसंख्यकों को सम्मानजनक जीवन देना है, जो उक्त तीनों देशों में अपनी आस्था का अनुसरण नहीं कर पा रहे।

नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार अवैध प्रवासी भारत के नागरिक नहीं हो सकते थे। वे इस अधिनियम की धारा-5 के अधीन नागरिकता के लिए आवेदन करते थे, किंतु यदि वे अपने भारतीय मूल का साक्ष्य देने में असमर्थ होते थे तो उन्हें उक्त अधिनियम की धारा-6 के तहत प्राकृतिकरण यानी नेचुरलाइजेशन द्वारा नागरिकता के लिए आवेदन करने को कहा जाता था। इस तरह से नागरिकता प्राप्त करने के लिए इन तीनों देशों के अल्पसंख्यकों को कम से कम 11 वर्ष भारत में रहना आवश्यक था। संशोधित अधिनियम में इस अवधि को घटाकर पांच वर्ष कर दिया गया है।

नागरिकता कानून तीनों पड़ोसी देशों के मुस्लिमों को सीधे भारत की नागरिकता हासिल करने की सुविधा नहीं देता, क्योंकि वे अपने देशों के बहुसंख्यक नागरिक हैं। इस कानून से किसी भी भारतीय अल्पसंख्यक और विशेष कर मुस्लिम की नागरिकता किसी प्रकार प्रभावित नहीं होती। यह कानून किसी की नागरिकता का हनन नहीं कर रहा, बल्कि वंचितों को कानूनन अधिकार दे रहा है। यह अधिनियम किसी को बुलाकर भी नागरिकता नहीं दे रहा, बल्कि जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 तक भारत में प्रवेश कर लिया, वे ही भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे।

उक्त तीनों इस्लामिक देशों के मुसलमान भी भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। यह नियम सभी विदेशी व्यक्तियों के लिए लागू है। भारत सरकार ऐसे आवेदनों पर विचार करने के बाद उन्हें नागरिकता प्रदान करती भी है। जैसे पाकिस्तानी गायक अदनान सामी को जनवरी 2016 में भारतीय नागरिकता प्रदान की गई। स्पष्ट है कि राजनीतिक कारणों अथवा वोट बैंक की राजनीति के चलते नागरिकता कानून के अमल का विरोध करना अतार्किक, अमानवीय और असंवैधानिक है। आम चुनाव की दहलीज पर खड़े विपक्ष को संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)