कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं, सभी समृद्धि और विकास की ओर अग्रसर हो रहे बंधु बांधव मात्र हैं। सभी उसी देवता के पुत्र हैं। सभी प्राणियों के हृदय में उसी देवत्व का वास है। ये वाक्य हैं भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के। इनमें यह स्पष्ट है कि चूंकि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में समान रूप से उसी ईश्वरीय सत्ता का वास है, अत: ऊंच-नीच का सवाल ही नहीं उठता। सब लोगों में एक ही ईश्वरीय तत्व होने के कारण सबका समान होना स्वाभाविक है। इस विचार के ही आधार पर विवेकानंद ने जाति पर आधारित भारतीय समाज में व्याप्त शोषण को अधर्म घोषित किया। उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति का ईश्वर तत्व दूसरे व्यक्ति में स्थित ईश्वर तत्व के प्रति कैसे अन्याय कर सकता है? उसे कैसे भूखा देख सकता है? वेदों के इस समानता संबंधी विचार को उन्होंने सामाजिक न्याय से जोड़ा। मानव अधिकारों की लड़ाई में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का जो संदेश फ्रांस और दूसरे यूरोपीय देशों ने 18वी सदी के अंत में दिया था, विवेकानंद ने उसका व्यापक रूप वेदों और उपनिषद के उस विचार में देखा जिसमें न केवल मनुष्यों, बल्कि पशुओं, पक्षियों और जल में विचरण करने वाले प्राणियों तथा जड़ पदार्थों में भी उसी सर्वोच्च सत्ता का वास माना गया।

समानता का यह संदेश जो भारतीय समाज में वेदों से प्रारंभ हुआ वह आगे भी जारी रहा। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-'सभी प्राणियों को मैं समान रूप से देखता हूं। न किसी को कम और न किसी को ज्यादा प्रेम करता हूं। अन्यत्र वह कहते हैं कि जो भी मेरी शरण में आएगा, वह चाहे किसी जाति, लिंग, संप्रदाय का हो, वह अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। महाभारत में अनेक स्थलों पर कहा गया है कि व्यक्ति केवल अपने आचरण से ही द्विज बनता है, जन्म से नहीं। हिंदू धर्म ग्रंथ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जहां व्यक्ति ने समाज में उच्च स्थान जाति के कारण नहीं, अपने गुणों और ज्ञान के कारण प्राप्त किया। कहावत प्रसिद्ध है कि किसी भी वैदिक ऋषि के वंश और जाति के बारे में जिज्ञासा न करें। छांदोग्य उपनिषद में सत्यकाम की एक कथा है। ऋषि गौतम के पास सत्यकाम विद्या अध्ययन के लिए पहुंचे। ऋषि ने माता-पिता का नाम पूछा। सत्यकाम ने मां का तो नाम बता दिया, पर पिता का नाम उन्हें नहीं मालूम था। ऋषि ने सत्यकाम को मां के पास वापस भेजा। मां ने बतलाया कि जहां वह काम करती थी वहां विभिन्न लोगों के संपर्क में आई। उसे नहीं ज्ञात कि उनमें सत्यकाम का पिता कौन था। यही बात सत्यकाम ने ऋषि को स्पष्ट बता दी। गौतम सत्यकाम की सच्चाई से प्रसन्न थे, क्योंकि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सत्यकाम ने शिक्षा प्राप्त की तथा वे महान ज्ञानी ऋषि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

प्राचीन भारत के इतिहास में जितने भी प्रमुख वंशों ने शासन किया उनमें शायद ही कोई क्षत्रिय हो। राजाओं के क्षत्रिय होने की बात केवल महाभारत, रामायण और पुराणों में ही कही जाती है। मौखिक लोक परंपरा से जुड़े होने के कारण इन ग्रंथों के कथानकों ने मिथकों का रूप ले लिया था, इतिहास का नहीं। राजा अपने मंत्रिमंडल में सभी वर्णों और जातियों के प्रतिनिधियों को महत्व देता था। शांति पर्व में भीष्म युधिष्ठिर को सलाह देते हैं कि वे मंत्रिमंडल में चार ब्राह्मण, आठ क्षत्रिय, इक्कीस वैश्य और तीन शूद्रों को मार्गदर्शन के लिए शामिल करें। वेद, उपनिषद और महाकाव्य ग्रंथों के विभिन्न उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जातिवाद से उत्पन्न जिस गैर-बराबरी के कारण भारतीय समाज की आलोचना की गई है, वह व्यवस्था बहुत बाद में आई। इस सनातन हिंदू-धर्म के लंबे इतिहास में वेदों और उपनिषदों की रचना के समय हिंदू-धर्म तो विद्यमान था, पर जाति व्यवस्था नहीं थी। यह अजीब बात है कि जाति प्रथा के तमाम विरोधों और धर्म विरुद्ध होने के बावजूद यह व्यवस्था अपने पैर जमाने में सफल रही। वस्तुत: विरोध तो इस व्यवस्था का शुरू से ही होने लग गया था। वज्रसूचिका नामक एक संपूर्ण उपनिषद ग्रंथ ही जन्म पर आधारित जाति प्रथा के खंडन के लिए समर्पित है।

हिंदू धर्म की व्यवस्था में जातिवाद और गैर-बराबरी का खुलकर विरोध करने वाला महत्वपूर्ण आंदोलन है भक्ति आंदोलन। 12वीं-13वीं शताब्दी में दक्षिण से प्रारंभ यह आंदोलन धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में छा गया। भक्तों ने जाति, विद्या, रूप, कुल, धन क्रिया आदि सभी प्रकार के भेदों का अंत कर दिया था। हिंदू समाज में समानता लाने की इस लड़ाई में कथित निम्न जातियों का प्रमुख योगदान रहा। इनके अतिरिक्त स्त्रियों और मुसलमानों ने भी गैरबराबरी खत्म करने की इस लड़ाई में हिस्सा लिया। यह स्पष्ट है कि जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था से हिंदू-धर्म का कोई लेना-देना नहीं रहा। जाति आज एक व्यवस्था के रूप में नेस्तनाबूद है, क्योंकि उसके सारे कार्य आज नेस्तनाबूद हो चुके हैं। बुद्ध के समय से लेकर अब तक यह व्यवस्था मानवीयता और समाजिक न्याय की दृष्टि से कलंकित रही, विशेषकर अपनी अतिवादी अस्पृश्यता नीति के कारण। यह सब होते हुए भी लोगों का अपने आपको जन्म आधारित जाति के रूप में पहचानना नहीं छूटा है। जाति की आज धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक सार्थकता न होते हुए भी इन्हीं संस्थाओं के कारण जाति बनी हुई है, क्योंकि जाति व्यवस्था के यूं ही बने रहने में ही उनकी अपनी हित साधना है। चुनावी राजनीति में यह पहचान और अधिक सक्रिय हो जाती है। यह विरोधाभास है कि जाति व्यवस्था तो मर गई, लेकिन जाति पहचान के चिन्ह रह गए हैं। आज भारत यदि अपनी संस्कृति के गौरव को दुनिया में प्रतिष्ठित करना चाहता है तो उसे सर्वप्रथम सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई अपने घर में करनी होगी। चुनावों की राजनीति ने जाति को एक नया महत्व प्रदान कर दिया है। हम आशा करते हैं कि हमारे नेता संसद में व्यर्थ की बहसों में न फंसकर देश की मूल समस्याओं के लिए लड़ेंगे।

[ लेखक उदय प्रकाश अरोड़ा, जेएनयू में इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं ]