[ बद्री नारायण ]: जातिगत जनगणना की मांग को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य के 11 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है। अब यह देखना होगा कि प्रधानमंत्री इस पर क्या निर्णय लेते हैं। जहां तक देश में जनगणना की बात है तो यह एक औपनिवेशिक देन है। जब अंग्रेजी उपनिवेशवाद ने भारत में सत्ता स्थापित की तो ‘जिन्हें शासित करना है, उन्हें जानो’ की अपनी नीति के तहत उसने पहली बार भारत में एक वृहत जनगणना की परियोजना प्रारंभ की। जनगणना, आंकड़े, अभिलेख और कठोर नियंत्रण के माध्यम से ही ब्रिटिश शासन ने भारत में अपने आधिपत्य को मजबूत किया। इसी के तहत उन्होंने जातीय जनगणना भी शुरू की। जब अंग्रेजी शासन ने भारत में जातीय जनगणना की परंपरा प्रारंभ की तो अपनी जातीय अवस्थिति को कुछ ने ऊंचा करना चाहा तो कुछ ने उनके ऊंचा करने के प्रयास का विरोध भी किया। फलत: समाज में जातीय अवस्थिति को लेकर तनाव, टकराव, हिंसा और मुकदमे होने लगे। आगे चलकर अंग्र्रेजों ने ‘जातीय जनगणना’ को विभिन्न कारणों से बंद कर दिया। फिर अनुसूचित जाति जैसी अनेक दमित जातियों की सामाजिक कोटि बनाई। यह जानना रोचक है कि भारत में अंग्रेजी जनगणना प्रारंभ होने के पहले जातीय अवस्थिति में गतिशीलता पाई गई थी। अनेक इतिहासकारों ने अपने शोध में यह पाया कि जनगणना में एक बार दर्ज हो जाने पर लोगों की जातीय अवस्थिति जड़ एवं रूढ़ हो गई। अर्थात अब उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं रहा। उसके पूर्व भारत में जातीय अवस्थिति कई बार गतिशील होती दिखाई पड़ी थी, किंतु इसी औपनिवेशिक जनगणना ने हमें वे आंकड़े दिए, जो आज जनतंत्र में हमारी हिस्सेदारी की चाह को निर्मित करते हैं। ये आंकड़े आज भी चुनावी गोलबंदी में प्रयोग किए जाते हैं।

जनगणना विकास की नीतियां बनाने में मददगार होती है

यहां हम भारत में जनगणना के इतिहास को इसलिए याद कर रहे हैं, क्योंकि अतीत हमें वर्तमान में क्या करें, क्या न करें की सीख भी देता है। कोई भी जनगणना सत्ता एवं शासन को वह आंकड़े देती है, जिसके आधार पर विकास की नीतियां बनाने में हमें मदद मिलती है, लेकिन क्या आज के संदर्भ में जातीय आंकड़े हमें नीतियां बनाने में मदद कर पाएंगे? भारत में करीब 3,000 जातियां एवं उपजातियां हैं। जनतांत्रिक स्रोतों एवं विकास योजनाओं का समायोजन इतनी बड़ी जातीय इकाइयों में कैसे संभव है? फिर तो अगड़ी जातियों, ओबीसी एवं अनुसूचित जातियों की गणना ही शायद इस जटिलता का समाधान कर पाए। यह ठीक है कि जाति आधारित जनगणना के आधार पर देश में जनतांत्रिक चुनावी अवसरों एवं विकास परक योजनाओं का वितरण संख्या बल के आधार पर करने की दिशा में हम आगे बढ़ पाएंगे, लेकिन यहां कुछ नैतिक प्रश्न भी खड़े होते हैं। जिसकी जितनी संख्या भारी है, उसको उतनी हिस्सेदारी मिल भी गई तो जिनकी संख्या कम है, उनका क्या होगा? कोटियों में विभाजित सामाजिक समूहों में जो कुछ जातियां ज्यादा सक्षम हो चुकी हैं, वे उसी समूह की अन्य जातियों के अवसरों पर क्या पूर्व की तरह कब्जा नहीं करती रहेंगी? हम जानते हैं कि आज सामाजिक कोटियों में अनेक जातियां हैं, जिन तक जनतांत्रिक लाभ उन्हीं कोटियों की प्रभावी जातियों की तरह नहीं पहुंच पा रहे हैं।

जाति आधारित जनगणना सामाजिक न्याय के संतुलित वितरण का माध्यम बनाना चाहिए

संभव है कि जातीय जनगणना अति उपेक्षित एवं अति पिछड़े समूहों का संख्या बल एवं अन्य आंकड़े हमें प्रदान करेगी, जिनसे हम उनके तुलनात्मक पिछड़ेपन अथवा विकास को समझ पाएंगे। हालांकि यह तभी संभव है जब जनगणना की दिशा एवं दृष्टि में सामाजिक-आर्थिक अवस्थिति पर आधारित प्रश्नों को ज्यादा महत्व मिले। यह महत्व न केवल जनगणना के वक्त, बल्कि उसकी व्याख्या करते समय भी दिया जाए । ऐसा न हो कि बस संख्या बल के आधार पर चुनावी जनतंत्र एवं सत्ता की शक्ति के वितरण में ही अपनी हिस्सेदारी का दावा किया जाए। यह ध्यान ही न दें कि संख्या बढ़ने या घटने के साथ ही सशक्तीकरण एवं विकास की प्रक्रिया कितनी बढ़ी या घटी है। भारतीय जनतंत्र से अपेक्षा की गई थी कि उसके प्रसार के बाद देश में जाति भाव कमजोर होगा। डा. आंबेडकर ने जाति उन्मूलन का स्वप्न देखा ही था, किंतु ऐसा हम सबने लगातार महसूस किया है कि जहां आधुनिकता कई अर्थों में हमारी जातीय जकड़न को कमजोर करती रही है, वहीं चुनावी जनतंत्र के विमर्श ‘जातीय बोध’ को बढ़ाते रहे हैं।

कुछ राजनीतिज्ञ मान रहे हैं कि जातीय जनगणना से भारत में समरसता आएगी, लेकिन गहरे अर्थों में देखें तो इतनी बड़ी संख्या में जातियों को जातीय इकाई के आधार पर संतुलित विकास एवं हिस्सेदारी देना आसान नहीं होगा। अगर कोई जनगणना संख्या बल के साथ ही सामाजिक-आर्थिक अवस्थिति एवं विकास के स्रोतों का आकलन करती है तो वह हमें अपने गवर्नेंस को समावेशी बनाने में मदद करेगी। वहीं यदि हम मात्र संख्या ही गिनने में लिप्त रहेंगे और उसके समाजशास्त्र को विमर्श में नहीं लाएंगे तो संख्या का सियासी खेल समाज में भयानक असंतुलन को जन्म देगा, जिसे साधना हमारे लिए कठिन होगा। बहरहाल जाति आधारित जनगणना अगर होती भी है तो इसे सामाजिक न्याय के संतुलित वितरण का माध्यम बनाना चाहिए। हमें इसे ऐसे उपादान में बदलना चाहिए कि यह समाज के अनेक इकाइयों में विभाजन के रहते हुए भी इनमें संतुलित एवं सम्मानजनक संबंध विकसित करने में हमारी मदद कर सके। ऐसी जनगणना ही हमारे शासन, देश एवं समाज में सही अर्थों में जनतांत्रिक मूल्यों के प्रसार में सहयोगी हो सकेगी।

( लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )