अन्न में ब्रह्म
वैसे तो भारतीय दर्शन चर-अचर में ब्रह्म तत्व की उपस्थिति स्वीकार करता है, लेकिन भौतिक जीवन के पोषक तत्व अन्न को ब्रह्म का ही एक रूप माना गया है। शास्त्रों में स्पष्ट विधान है कि जो भी वस्तु मानव जीवन को सुखद और विकासमान बनाने में सहायक होती है वह
वैसे तो भारतीय दर्शन चर-अचर में ब्रह्म तत्व की उपस्थिति स्वीकार करता है, लेकिन भौतिक जीवन के पोषक तत्व अन्न को ब्रह्म का ही एक रूप माना गया है। शास्त्रों में स्पष्ट विधान है कि जो भी वस्तु मानव जीवन को सुखद और विकासमान बनाने में सहायक होती है वह श्रद्धेय है। इसलिए उनमें देवतत्व का निरूपण कर मनीषियों ने उनके परम महत्व का निरूपण किया है। उपनिषद में ऋषि कहते हैं कि ऐसा मानना चाहिए कि अन्न ही ब्रह्म है। उक्त सूत्र कृषि के महत्व के साथ-साथ जीवनोपयोगी साधनों के प्रति आदर भाव दिखाने की प्रेरणा है। मानव जीवन ईश्वर प्रदत्त होता है, लेकिन लौकिक गति और व्यवहार अन्न से प्राप्त ऊर्जा से होता है। इसलिए ऋषि कहते हैं कि 'प्राणो वा अन्नं' अर्थात् प्राण ही अन्न है। ऋषि अन्न के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि प्राण ही अन्न है। शरीर अन्नाद है। प्राण में शरीर है और शरीर में प्राण। दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। एक दूसरे में प्रतिष्ठित हैं। अन्न है तो जीवन है। जगत में जीवन सतत और निरंतर बना रहे इसलिए कृषि को महत्व दिया गया है। कृषि जीवन का आधार है, क्योंकि अन्न की प्राप्ति कृषि कार्यों से ही होती है। ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं कि कृषि कर्म वाला हल अन्न का उत्पादक है। वह अपने मार्ग पर चलकर अन्न प्रकट करता है।
ऋषि संदेश देते हैं कि जब एक भौतिक यंत्र अन्न प्रदायक हो सकता है तो संवदेनशील मानव अपने श्रम से जग का पेट क्यों नहीं पाल सकता? संसार में कोई भी भूखा न हो। पृथ्वी का कोई भी छोर बिन खेती का न हो। मनीषियों का आदेश है कि भूमि खाली न हो, उसे खेती करके कृतज्ञ करो। यजुर्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि हम समस्त भूमि पर कृषि करें। कृषि से यदि हमें कम लाभ भी हो तो भी अधिक समझो, क्योंकि अन्न का उत्पादन जीवन का उत्पादन है। एक अन्य मंत्र में अन्न को धर्म का आशीष कहा गया है। ऋषि कहते हैं कि हे धर्म! यह तुम्हारा पुष्टिकारक अन्न है। उसके द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारी कृपा से हम भी वृद्धि को प्राप्त होते हुए पुष्ट हो जाएं। हमारे तत्वदर्शियों का दृष्टिकोण मानव-कल्याण की प्रखर भावना से आरंभ होता है। अन्न मानव की पहली आवश्यकता है, अत: उसके महत्व को ईश्वरीय साधना की भांति पवित्र और अनिवार्य माना गया है।
[स्वामी चक्रपाणि]
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