सजगता
आनंदपूर्वक जीवन जीना एक कला है और आनंद की खोज कहीं और नहीं, बल्कि मनुष्य को अपने भीतर ही करनी पड़ती है।
आनंदपूर्वक जीवन जीना एक कला है और आनंद की खोज कहीं और नहीं, बल्कि मनुष्य को अपने भीतर ही करनी पड़ती है। मनुष्य की प्रत्येक सांस में आनंद है। यदि वह प्रत्येक पल को सजगता से जिए तो उसके जीवन में आनंद ही आनंद है। इसी तरह जो व्यक्ति सजग नहीं है, उसके जीवन में दुख ही दुख है। सजगता का अर्थ अपने प्रति जागरूक रहना है। व्यक्ति को अपनी दैनिक गतिविधियों, अपने विचारों और कर्मों के प्रति सजग रहना चाहिए। आप ऐसा तभी कर सकते हैं, जब अपने आपको जानते हों यानी अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को पहचानते हों या जब आप किसी वस्तु में गहरी अभिरुचि रखते हों। जब आप किसी चीज को जानने की कोशिश करते हैं और इस जानने की क्रिया में निरंतरता लाते हैं तो आप अपने विचारों और लक्ष्यों के प्रति सजग होते जाते हैं और तब हर चीज से रहस्य का आवरण हटता जाता है। जब हम अपने प्रति या अपने कर्मों के प्रति सजग नहीं हैं तो प्रकृति भी हमारे साथ उसी हिसाब से न्याय करती है। ज्ञान से ही हममें सजगता आती है जिससे हम किसी भी वस्तु, परिस्थिति, घटना और भावना से खुश या परेशान नहीं होते।
ज्ञान के अभाव में ही व्यक्ति इन चीजों से या तो बहुत खुश या दुखी हो जाता है। ज्ञानवान होने के बावजूद जिनमें सजगता का अभाव होता है, उनका स्वभाव ऐसा होता है कि वे कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। इसलिए वे यही शिकायत करते रहते हैं कि उन्हें यह नहीं मिला या वह नहीं मिला। उन्हें न ही अपनी बुराई दिखाई देती है और न ही वे अपनी समस्या को ठीक से समझ पाते हैं। नतीजा यह होता है कि वे शिकायतें ही करते रहते हैं। मसलन यदि हमें क्रोध आता है तो सजग व्यक्ति उसे दबाने के बजाय उसे प्रकट करेगा, क्योंकि वह जान चुका होता है कि क्रोध को दबाने से नहीं, बल्कि उसके बाहर निकलने पर मनुष्य को शांति मिलती है। अध्यात्म में कहा गया है कि पहले अपनी बुराई को पहचानो, सीधे उससे लड़ने न लग जाओ। हम अपनी बुराई को जितना जानेंगे-पहचानेंगे, बुराई उतनी ही कम होती जाएगी और एक समय ऐसा आएगा जब वह पूरी तरह नष्ट हो जाएगी। इसी क्रिया का नाम सजगता है। जब हम सजग होंगे तब हम पाएंगे कि कार्य करने के बाद मिली सफलता से हम शांति और परम आनंद का अनुभव करेंगे।
[ शंभूनाथ पांडेय ]
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।