स्वप्न देखना मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है। प्राय: वह अपनी क्षमता और स्थिति का भली-भांति आकलन किए बगैर चंचल मन के वशीभूत होकर विविध आकांक्षाओं अथवा कपोल-कल्पित योजनाओं को पूरा करने का स्वप्न देखता रहता है। जब किसी व्यक्ति के मन में कुछ पाने की तीव्र उत्कंठा हो, परंतु उसे प्राप्त करने की शक्ति अथवा परिस्थिति न हो अथवा प्रारब्ध आदि कारणों से उसकी इच्छा अपूर्ण रह जाए तब मन के भीतर जिस घुटन, बेचैनी या झुंझलाहट का आगाज होता है, वही कुंठा कहलाती है। यह विफलता के कारण मन में उत्पन्न होने वाली घोर निराशा ही है। अधिकांशत: आर्थिक प्रतिस्पर्धा, मान-सम्मान पाने की अत्यधिक लालसा, परीक्षा में असफलता, युवाओं में प्रेम-प्रसंगों की विफलता आदि असह्य परिस्थितियां हमें कुंठित जीवन जीने के लिए विवश कर देती हैं। शरीर की एड्रीनल गं्रथियों द्वारा स्रावित एड्रीनलीन हॉर्मोन से तमाम असामान्य लक्षण प्रकट होते हैं। एकांतप्रियता, गुमसुम रहना और नकारात्मक विचारों की प्रधानता व्यक्तित्व को बंधक बना लेती है। अनिद्रा के साथ ही मधुमेह, उच्च रक्त चाप जैसी खतरनाक बीमारियों के सक्रिय होने का खतरा भी बढ़ जाता है। कुंठा की चरमावस्था में आत्महत्या जैसे कुत्सित विचार भी मन को उद्वेलित कर सकते हैं।
जीवन प्रकृति की अनुपम भेंट है। ‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने कहा है-तेरा कर्म करने पर ही अधिकार है, उसके फलों पर कभी नहीं। इसलिए लक्ष्य-पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष को जीवन की सहज प्रक्रिया मानकर अंगीकार करें और सदैव समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाएं। सपनों से नाता न तोड़ें, अन्यथा जीवन नीरस हो जाएगा, परंतु अपनी आकांक्षाओं को सीमित कर क्षमताओं की सीमा का अतिक्रमण कदापि न होने दें। कुंठा जीवन की प्रबल शत्रु है। मनोवैज्ञानिक शोधों से खुलासा हुआ है कि कुंठा से व्यक्ति की उपलब्धियों, गुणों और प्रतिभा का ह्रास होता है। इसलिए हमेशा सकारात्मक सोच रखें और निराशा से बचें। समुचित शारीरिक व्यायाम, पौष्टिक और संतुलित आहार, नियमित व संयमित दिनचर्या और योगाभ्यास को अपनाकर कुंठा से काफी हद तक बचा जा सकता है। साथ ही सैर-सपाटे पर जाएं। प्रकृति के साथ समय बिताएं।
[ डॉ. मुमुक्षु दीक्षित ]