अंततः नया बना विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ले आया। वह स्वीकार भी हो गया। अब प्रतीक्षा है उस पर बहस की। आइएनडीआइए भले ही अविश्वास प्रस्ताव को अपनी जीत समझ रहा हो और यह मानकर चल रहा हो कि उसे संसद में अपनी एकजुटता एवं ताकत दिखाने का अवसर मिलेगा, लेकिन एक तो इस प्रस्ताव का गिरना तय है और दूसरे, जब इस पर बहस होगी तो इसके भरे-पूरे आसार हैं कि सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री की ओर से इस नए गठबंधन की कथित एकजुटता की पोल भी खोली जाएगी और उसकी आपसी खींचतान को भी उजागर किया जाएगा।

इतना ही नहीं, बहस केवल मणिपुर तक सीमित नहीं रहने वाली, क्योंकि हालिया पंचायत चुनावों के दौरान बंगाल में जो भीषण हिंसा हुई, कोई भी उसकी अनदेखी नहीं कर सकता-मोदी सरकार तो बिल्कुल भी नहीं। यह सही है कि अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष ने अपने इस उद्देश्य को हासिल कर लिया कि मणिपुर के मामले में प्रधानमंत्री को सदन में बोलना ही पड़ेगा, लेकिन उसने उन्हें अपनी राजनीतिक हठधर्मिता को बेनकाब करने का अवसर भी दे दिया है।

विपक्षी दल मणिपुर पर चर्चा की शुरुआत प्रधानमंत्री के वक्तव्य के साथ करने की अपनी मांग पर महज इसलिए अड़े थे, ताकि अपने अहं को तुष्ट करने के साथ यह बता सकें कि आइएनडीआइए के गठन के बाद वे राजनीतिक रूप से कहीं अधिक शक्तिशाली हो गए हैं और प्रधानमंत्री को चुनौती देने की स्थिति में आ गए हैं। इसमें संदेह है कि वे अविश्वास प्रस्ताव के जरिये ऐसा संदेश देने में सचमुच सफल हो सकेंगे।

मणिपुर के हालात पर विपक्षी दलों की चिंता एक दिखावा ही अधिक दिखी, क्योंकि यदि वे वहां की स्थितियों को लेकर वास्तव में दुखी और गंभीर होते तो चार दिन संसद का काम रोक कर न तो नारेबाजी में अपनी ऊर्जा खपा रहे होते और न ही गृह मंत्री को सुनने से इन्कार कर रहे होते। विपक्ष जो भी दावा करे, सच यही है कि उसने अपने राजनीतिक हित भुनाने के फेर में इस परंपरा की अनदेखी करना पसंद किया कि जिस मंत्रालय का मामला होता है, उसके ही मंत्री को उस पर वक्तव्य देना होता है।

मोदी सरकार के इस कार्यकाल में यह पहली बार है, जब विपक्ष उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया है। इसके पहले उसने यह काम 2018 में किया था। तब भी उसे पराजय का सामना करना पड़ा था और इस बार भी ऐसा ही सुनिश्चित सा दिख रहा है, क्योंकि जहां भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के पास लोकसभा में 330 से अधिक सदस्य हैं, वहीं आइएनडीआइए के पास इसके आधे भी नहीं हैं। यह ठीक है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी अविश्वास प्रस्ताव पर आइएनडीआइए के साथ है, लेकिन यदि वे अपेक्षित संख्याबल प्रदर्शित नहीं कर पाते तो अपनी ताकत दिखाने का उनका दांव उलटा भी पड़ सकता है।