इसके पहले भी संसद के सत्र बिना किसी खास कामकाज के समाप्त हुए हैं, लेकिन शीतकालीन सत्र का मामूली कामकाज के साथ समाप्त होना इसलिए कहीं अधिक निराशानजक और चिंताजनक है कि इस दौरान संसद के भीतर-बाहर जमकर हंगामा तो हुआ ही, सत्तापक्ष-विपक्ष के रिश्ते इतने अधिक कटु हो गए कि उनके बीच शत्रु भाव दिखने लगा। इसी के नतीजे में पिछले दिनों संसद परिसर में पक्ष-विपक्ष के सांसदों के बीच धक्का-मुक्की हुई और मामला एक-दूसरे के खिलाफ रपट दर्ज कराने तक जा पहुंचा।

दोनों पक्षों के बीच की कटुता बढ़ जाने की पुष्टि तब भी हुई, जब विपक्ष ने राज्यसभा सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की पहल कर दी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। लोकतंत्र के लिए इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती कि सत्तापक्ष एवं विपक्ष में इतना वैमनस्य व्याप्त हो जाए कि वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करें। इससे बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि शीतकालीन सत्र में संविधान को अपनाने के 75 वर्ष पूरे होने के मौके पर लोकसभा और राज्यसभा में उस पर बहस हुई, क्योंकि इस बहस से देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। इस बहस के जरिये दोनों पक्षों ने यही साबित करने की कोशिश कि संविधान को एक-दूसरे से खतरा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विपक्ष की ओर से अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने के लिए जानबूझकर भय का यह भूत खड़ा किया गया है कि मोदी सरकार संविधान और आरक्षण खत्म करने का इरादा रखती है। चूंकि विपक्ष छिछले स्तर पर उतर आया, इसलिए सत्तापक्ष को भी उसे उसकी ही भाषा में जवाब देने के लिए सक्रिय होना पड़ा।

शीतकालीन सत्र में संसद का ज्यादातर समय हंगामे और नारेबाजी की भेंट चढ़ गया। जो समय बचा, उसे ऐसे मुद्दों को उठाने में जाया किया गया, जिनका आम जनता से कोई खास लेना-देना नहीं था। यदि आम जनता को संसद की कार्यवाही में अपने लिए कुछ न दिखा हो तो हैरानी नहीं। यह समझ आता है कि विपक्ष की दिलचस्पी इसमें ही थी कि संसद में कोई कामकाज होने के स्थान पर हंगामा होता रहे, लेकिन कम से कम सत्तापक्ष को तो संसद की कार्यवाही का उपयोग अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए हर संभव तरीके से करने चाहिए थे। यह अच्छा नहीं हुआ कि सत्तापक्ष ने विपक्ष के हंगामे का जवाब हंगामा करके देना बेहतर समझा। एक ऐसे समय जब मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही है, तब उसे यह देखना चाहिए कि वह सही दिशा में बढ़ पा रही है या नहीं? यदि संसद ढंग से नहीं चलेगी तो इससे सरकार का एजेंडा बाधित होगा और उसके नतीजे में न तो जरूरी सुधार हो सकेंगे, न आवश्यक फैसले लिए जा सकेंगे और न ही जनता की अपेक्षाएं पूरी हो सकेंगी।