समान नागरिक संहिता की दिशा में कोई काम न होने की सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद देश का ध्यान इस ओर जाना ही चाहिए कि ऐसी किसी संहिता का निर्माण किस तरह अभी भी लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि 1956 में हिंदू कानून बनने के बाद समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ा जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की दिशा में कुछ न किए जाने पर टिप्पणी की हो। वह इसके पहले भी कई बार इस तरह की टिप्पणियां कर चुका है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा।

देखना है कि सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी के बाद समान नागरिक संहिता के निर्माण के लिए उपयुक्त माहौल बनाए जाने की कोई शुरूआत होती है या नहीं? यह सही समय है कि इस पर न केवल व्यापक बहस हो, बल्कि किसी नतीजे पर भी पहुंचा जाए। यह काम जितनी जल्द हो उतना ही अच्छा, क्योंकि पहले ही अनावश्यक देर हो चुकी है। इस देरी का कारण वे घिसे-पिटे तर्क हैैं जिनके तहत कभी यह कहा जाता है कि अभी समान नागरिक संहिता के लिए सही समय नहीं आया और कभी यह कि इतनी अधिक विविधता वाले देश में विवाह और उत्तराधिकार संबंधी कानून एक समान नहीं हो सकते। ये तर्क एक तरह की बहानेबाजी ही हैैं, क्योंकि गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है। आखिर जो व्यवस्था गोवा में लागू हो सकती है वह शेष देश में क्यों नहीं स्वीकार हो सकती?

नि:संदेह देश के सभी नागरिकों के लिए समान संहिता का निर्माण केवल इसलिए नहीं होना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने इसकी जरूरत रेखांकित की थी, बल्कि इसलिए भी होना चाहिए कि देश में समानता का भाव जाग्रत हो सके और जाति एवं मजहब के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो सके। सच तो यह है कि तीन तलाक को अवैध घोषित किए जाने के बाद इसकी आवश्यकता और बढ़ गई है कि समान नागरिक संहिता की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जाएं।

चूंकि इस मामले में कुछ ज्यादा ही हीलाहवाली हुई है इसलिए सरकार को चाहिए कि वह समान नागरिक संहिता के निर्माण के मामले में वैसी ही इच्छाशक्ति का परिचय दे जैसी कि उसने अनुच्छेद 370 को हटाने के मामले में दिखाई। उसे यह स्पष्ट संकेत देने में संकोच नहीं करना चाहिए कि यह वह विचार है जिस पर अमल करने का समय आ गया है। बेहतर होगा कि समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा देश के सामने रखा जाए ताकि इस संहिता को लेकर होने वाले दुष्प्रचार को थामा जा सके।