भाषा विवाद को तूल दे रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने परिसीमन पर बैठक बुलाकर यही सिद्ध किया कि वह राजनीतिक रोटियां सेंकने के इरादे से एक और ऐसे मुद्दे को हवा दे रहे हैं, जिसका फिलहाल कोई सिर-पैर नहीं दिख रहा है। ज्ञात हो कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का उनका आरोप भी अपने राज्य के लोगों को बरगलाने के लिए ही है, क्योंकि इस नीति के त्रिभाषा सूत्र में तो हिंदी का उल्लेख तक नहीं है।

लगता है कि इस मुद्दे पर बेनकाब होने के बाद ही उन्होंने परिसीमन के मामले को आगे बढ़ाने का फैसला किया है। वह यह शोर मचाने में लगे हुए हैं कि यदि परिसीमन के निर्धारण में केवल जनसंख्या को आधार बनाया जाता है तो लोकसभा में दक्षिण के राज्यों की सीटें घट जाएंगी।

यह भय का भूत खड़ा करने की ही कोशिश है, क्योंकि अभी यह तय नहीं कि परिसीमन का एक मात्र आधार जनसंख्या को बनाया जाएगा। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि परिसीमन की नौबत तब आएगी, जब जनगणना होगी। अभी तो यही नहीं पता कि जनगणना कब होगी? यद्यपि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह स्पष्ट कर चुके हैं कि परिसीमन में किसी राज्य के साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा, लेकिन स्टालिन को चैन नहीं। वह ऐसा माहौल बनाने में लगे हुए हैं, जैसे जनसंख्या के आधार पर परिसीमन कराने की मुनादी कर दी गई है।

भाषा का मामला हो या फिर परिसीमन का, स्टालिन के रवैये से यदि कुछ सिद्ध हो रहा है तो यही कि उनकी निगाह तमिलनाडु में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव पर है और वह अपनी राज्य की जनता का ध्यान उन मुद्दों से भटकाना चाहते हैं, जिनके लिए उन्हें जवाबदेह बनाया जा सकता है। यह किसी से छिपा नहीं कि वह परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरते जा रहे हैं। वह केवल दक्षिण के राज्यों की राजनीति की कमान ही अपने हाथ नहीं लेना चाहते। वह विपक्षी दलों की राजनीति के सूत्र भी अपने हाथ में लेने की कोशिश करते दिख रहे हैं।

पता नहीं क्यों उन्हें यह लगने लगा है कि वह ममता बनर्जी की तरह विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए का एक बड़ा चेहरा बन सकते हैं। इसमें वह शायद ही सफल हों, क्योंकि परिसीमन को लेकर बुलाई गई बैठक में तृणमूल कांग्रेस ने भागीदारी नहीं की। वाईएसआर कांग्रेस भी इस बैठक से दूर रही। तथ्य यह भी है कि विपक्षी दलों के कई नेताओं ने 25 साल तक परिसीमन रोकने की उनकी मांग का समर्थन नहीं किया। ध्यान रहे कि परिसीमन को पहले भी दो बार टाला जा चुका है। केंद्र सरकार को इसे लेकर सतर्क रहना होगा कि स्टालिन और उनके साथ खड़े नेता परिसीमन को लेकर विभाजनकारी राजनीति न करने पाएं।