Electoral Bonds: चुनावी चंदे का जटिल सवाल, कैसे रुकेगा राजनीति में कालेधन का इस्तेमाल
अभी तक राजनीतिक दल यह जानकारी नहीं देते थे क्योंकि संबंधित कानून में इसका प्रविधान ही नहीं रखा गया था। जब यह कानून लाया गया था तो यह वादा किया गया था कि समय के साथ चुनावी बॉन्ड की प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया जाएगा लेकिन पिछले छह वर्षों में ऐसा कुछ नहीं किया गया। आखिर इस जरूरी जानकारी को सूचना अधिकार कानून से बाहर रखने का क्या औचित्य?
चुनावी बॉन्ड योजना को लेकर जैसे सवाल उठ रहे थे, उसे देखते हुए इस पर आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस योजना को असंवैधानिक करार दिया। इसी के साथ उसने स्टेट बैंक को चुनावी बॉन्ड संबंधी जानकारी चुनाव आयोग के साथ साझा करने का निर्देश दिया। इससे यह पता चलेगा कि किन व्यक्तियों और कारोबारी समूहों ने किस दल को चुनावी बॉन्ड के जरिये कितना चंदा दिया?
अभी तक राजनीतिक दल यह जानकारी नहीं देते थे, क्योंकि संबंधित कानून में इसका प्रविधान ही नहीं रखा गया था। जब यह कानून लाया गया था तो यह वादा किया गया था कि समय के साथ चुनावी बॉन्ड की प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया जाएगा, लेकिन पिछले छह वर्षों में ऐसा कुछ नहीं किया गया। चुनावी बॉन्ड योजना इसलिए लाई गई थी, क्योंकि इसके पहले राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे की प्रक्रिया अपारदर्शी तो थी ही, उसमें नकदी का भी जमकर इस्तेमाल होता था।
ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि राजनीतिक दलों को यह बताना आवश्यक नहीं था कि उन्हें 20 हजार रुपये से कम राशि का नकद चंदा किससे मिला? इसके चलते कुछ दल यह दावा करते थे कि उन्हें अधिकांश चंदा 20-20 हजार रुपये से कम राशि के जरिये ही मिला। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि इस व्यवस्था में कालेधन का इस्तेमाल हो रहा होगा।
यह अच्छा नहीं हुआ कि चुनावी चंदे की पुरानी प्रक्रिया से जुड़ी खामियों को दूर करने के नाम पर चुनावी बॉन्ड की जो योजना लाई गई, वह न तो विसंगतियों से मुक्त हो सकी और न ही पारदर्शी बन सकी। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि जब सुप्रीम कोर्ट में पारदर्शिता को लेकर सवाल उठा तो सरकार की ओर से यह विचित्र तर्क दिया गया कि नागरिकों को राजनीतिक चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं।
आखिर इस जरूरी जानकारी को सूचना अधिकार कानून से बाहर रखने का क्या औचित्य? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह कहना कठिन है कि चुनावी चंदे की कोई पारदर्शी व्यवस्था बन पाएगी या नहीं, लेकिन यह समय की मांग है कि जनता को यह पता चले कि राजनीतिक दलों को कौन कितना चंदा दे रहा है? देश के छोटे-बड़े उद्योगपति न जाने कब से राजनीतिक दलों को चंदा देते आ रहे हैं।
यह मानने का कोई कारण नहीं कि वे गोपनीय तरीके से ही चुनावी चंदा देना पसंद करते हैं। भारतीय लोकतंत्र के भले के लिए चुनावी चंदे की प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाना और राजनीति में कालेधन का इस्तेमाल रोकना आवश्यक है। इसमें विपक्ष को भी सहयोग देना होगा। वह यह कहकर अपनी पीठ नहीं थपथपा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उसकी जीत हुई, क्योंकि यह एक तथ्य है कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की तरह राज्यों में शासन कर रहे दल भी चुनावी बॉन्ड हासिल करने के मामले में बढ़त पर थे।
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