जागरण संपादकीय: संविधान पर चर्चा, आगे बढ़ रहा आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला
संविधान पर लोकसभा में चर्चा के बाद राज्यसभा में भी उस पर बहस होगी। यह बहस पूरी होने पर ही यह पता चलेगा कि उसका निष्कर्ष क्या रहा लेकिन जैसी शुरुआत हुई है उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि इस चर्चा से देश की जनता को कुछ हासिल हो सकेगा। संविधान पर चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि उसे अपनाए हुए 75 वर्ष हो चुके हैं।
यह अच्छा हुआ कि लगातार बाधित हो रही संसद में संविधान पर चर्चा के बहाने हंगामा थम गया और लोकसभा में सत्तापक्ष और विपक्ष बहस करने के लिए तैयार हो गए, लेकिन संविधान पर चर्चा के दौरान कुल मिलाकर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला ही आगे बढ़ता दिख रहा है। संविधान पर चर्चा के नाम पर उन्हीं मुद्दों को रेखांकित किया जा रहा है, जो पहले भी उठाए जाते रहे हैं और जिनके जरिये एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है।
संविधान पर लोकसभा में चर्चा के बाद राज्यसभा में भी उस पर बहस होगी। यह बहस पूरी होने पर ही यह पता चलेगा कि उसका निष्कर्ष क्या रहा, लेकिन जैसी शुरुआत हुई है, उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि इस चर्चा से देश की जनता को कुछ हासिल हो सकेगा। संविधान पर चर्चा इसलिए हो रही है, क्योंकि उसे अपनाए हुए 75 वर्ष हो चुके हैं। संविधान पर विमर्श के लिए यह अवसर बिल्कुल उपयुक्त है, लेकिन सार्थक चर्चा का अभाव इस अवसर को गंवाने का ही काम करेगा। सत्तापक्ष के अनुसार वह संविधान के प्रति समर्पित है और मोदी सरकार उसी के अनुरूप आगे बढ़ रही है, लेकिन विपक्ष को ऐसा बिल्कुल भी नहीं दिख रहा है। उसके अनुसार सरकार संविधान की भावना के प्रतिकूल कार्य करते हुए उसकी अनदेखी कर रही है।
विपक्ष के रवैये से यही साबित हो रहा है कि वह यह समझाना चाहता है कि सरकार संविधान को बदलने का इरादा रखती है। यह वही पुराना आरोप है, जिसे लोकसभा चुनाव के समय जोर-जोर से प्रचारित किया गया था। इस प्रचार के चलते विपक्ष को कुछ राजनीतिक लाभ भी मिला था। लगता है कि विपक्ष ने यह मान लिया है कि उसकी ओर से संविधान खतरे में है का जो हौवा खड़ा किया जा रहा है, उससे उसे आगे भी राजनीतिक और चुनावी लाभ मिलेगा, लेकिन वह ध्यान रखे तो बेहतर कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।
यह विचित्र है कि संविधान एक है, लेकिन उसके पालन के मामले में दोनों पक्षों का दृष्टिकोण एक-दूसरे के सर्वथा विपरीत है। आखिर ऐसे कैसे हो सकता है? संविधान पर बहस का कोई लाभ तो तब मिल सकता है, जब वह इस पर केंद्रित हो कि उस पर सही तरह अमल कैसे हो और उन कारणों का निवारण कैसे किया जाए, जिनके चलते नियम-कानूनों का अनुपालन संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं हो पा रहा है। यदि सत्तापक्ष और विपक्ष में संवैधानिक प्रविधानों के पालन को लेकर कोई सहमति ही नहीं बनेगी तो फिर संविधान पर चर्चा का उद्देश्य कैसे पूरा होगा? इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं कि संविधान को लेकर यह माहौल बनाया जा रहा है कि देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उसमें संशोधन करना उसे खत्म करने की कोशिश है। संविधान के प्रति धर्मग्रंथ जैसी आस्था रखना तो ठीक है, लेकिन उसे किसी धार्मिक ग्रंथ के समान बताने का कोई मतलब नहीं।
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