गिरीश्वर मिश्र : चिकित्सा विज्ञान के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि अवसाद, चिंता, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर और मधुमेह जैसे जानलेवा रोगों के शिकार लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। इसके पीछे जीवनशैली में आ रहे परिवर्तनों को मुख्य रूप से जिम्मेदार बताया जा रहा है। सुख-सुविधा के अधिकाधिक साधन अब आम लोगों की पहुंच के भीतर आते जा रहे हैं। वैश्वीकरण के साथ ही सामाजिक और भौगोलिक गतिशीलता भी तेजी से बढ़ रही है। कामकाज का स्वरूप भी डिजिटल और आरामतलब बनता जा रहा है। इस कारण लोग आवश्यक शारीरिक व्यायाम नहीं कर पा रहे हैं। लंबे समय तक बैठकर काम करने का चलन बढ़ रहा है। इंस्टेंट-फास्ट फूड की पैठ बढ़ रही है। जिम में तेजी से पसीना बहाने के चलते हृदय रोग के खतरे से भी लोग जूझ रहे हैं। कुल मिलाकर जीवन एक यंत्र-बद्ध मनुष्यता की दिशा में आगे बढ़ रहा है।

जबकि एक समय संस्कार, सद्व्यवहार और सत्कर्म यानी अच्छाई की ओर उन्मुख रहना भारतीय जीवनशैली का मुख्य सरोकार होता था। इसमें योग की विशेष भूमिका थी। आज फिर योग का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। विशेषकर आसन, प्राणायाम और योग-निद्रा अब फैशन में आ रहे हैं। इनके लिए सस्ते-महंगे एकल या सामूहिक शिक्षण-प्रशिक्षण के आनलाइन तथा कई तरह के पाठ्यक्रम भी लोकप्रिय हो रहे हैं। बड़ी संख्या में योग गुरु भी तैयार बैठे हैं। निश्चय ही इन सब फौरी कार्यकलापों का योग से तो संबंध है, लेकिन सिर्फ यही योग है ऐसा कहना उचित न होगा। सिद्धांत और व्यवहार को जांचें-परखें तो योग एक समग्र जीवन दर्शन है। महर्षि अरविंद के शब्दों में कहें तो ‘सारा जीवन ही योग’ है।

योग-विद्या को कई लोग परमात्मा और आत्मा के मिलन से जोड़कर देखते हैं। हालांकि कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है। महर्षि पतंजलि तो ईश्वर को ‘पुरुषविशेष’ घोषित करते हैं। वस्तुतः बुद्धि, भावना और व्यवहार मानवीय प्रतिभा के ऐसे उपकरण है, जिनके समुचित विकास से जीवन के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों की उन्नति हो सकती है, किंतु हो उलटा रहा है। विभिन्न क्षमताओं का विकास, स्वास्थ्य, शांति और सजगता दुर्लभ होते जा रहे हैं। ये मानवीय गुण यौगिक जीवनशैली के अंग और परिणाम दोनों कहे जा सकते हैं।

योग-शास्त्र को मानें तो योग मुख्यतः चित्तवृत्तियों को शांत करने और उच्च चैतन्य की अवस्था के अनुभव के लिए अग्रसर करता है। योग के आसन प्राणिक ऊर्जाओं को व्यवस्थित और संतुलित करने में सहायक होते हैं। योग के साथ जीवन यात्रा शुरू करते हुए अभ्यास, साधना और फिर उसे जीवन में उतारने का क्रम आता है। यौगिक सोच को जीवनशैली के रूप में अपनाना एक गंभीर मामला है। आज प्रदूषण तथा शारीरिक बीमारियों आदि को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य की रक्षा, प्रतिरक्षा तंत्र की सुदृढ़ता और मानसिक शांति की तलाश महत्वपूर्ण होती जा रही है। योग इस अंधियारे दौर में प्रकाश की किरण जैसा है।

हमारे स्वभाव की चंचलता हमारे अपरिमित सुख और संतुष्टि की कामना से जुड़ी हुई है। असंयमित राह पर चलते हुए जो आदतें बनती हैं, उनसे हमारे चित्त की चंचलता बढ़ती है और हम दिग्भ्रमित होने लगते हैं। यौगिक जीवनशैली में हमारी प्रकृति या स्वभाव और आत्मसंयम मुख्य आधार स्तंभ होते हैं। जैविक प्राणी के रूप में हमारी दिनचर्या (यानी आहार, निद्रा, भय और मैथुन) भी हमारे स्वभाव पर निर्भर करती है। याद रहे कि आहार में हमारे शरीर और मन दोनों से जुड़ा वह सब आता है, जिसे पाकर हम तृप्त होना चाहते हैं। यानी भोग करना चाहते हैं। निद्रा विश्राम है यानी हम वर्तमान में चल रही क्रिया से विरत होते हैं।

आजकल विभिन्न इलेक्ट्रानिक उपकरणों के बढ़ते चलन के साथ हमारे ऊपर कई तरह के विक्षेप हावी हो रहे हैं। यौन जीवन में मर्यादाओं को तोड़ते हुए लैंगिक संबंधों में अति-उदार दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, जिसके चलते स्वेच्छा और आपसी सहमति को अधिकाधिक निर्णायक महत्व मिल रहा है। मातृत्व का विकल्प सरोगेसी या किराए की कोख के साथ आ रहा है। संयम को परे ढकेल सामाजिक मर्यादाएं तोड़ती जीवनशैली तनाव, मादक द्रव्य सेवन, हिंसा, विश्वासघात और अस्थिरता से अस्त-व्यस्त हो रही है। संतुलन और शांति की जगह प्रयोगधर्मिता, आश्वस्ति की जगह संशय और आत्मविस्तार की जगह आत्मसंकोच की दिशा में आगे बढ़ती यह जीवनशैली व्यापक मानव कल्याण की उपेक्षा करती दिख रही है।

योग की जीवनशैली दुख के साथ होने वाले संयोग से वियोग करने वाली या बचाने वाली है। यौगिक जीवनशैली का प्रमुख अंग शारीरिक स्वास्थ्य है जिसके लिए सतत प्रयास करना पड़ता है। संतुलित और व्यवस्थित जीवन जीते हुए शरीर पर समुचित ध्यान एवं परिश्रम बहुत आवश्यक है। आसन और प्राणायाम इसके लिए लाभकारी होते हैं। चूंकि मन सभी क्रियाओं को परिचालित करता है, इसीलिए इसे शरीर की बैटरी भी कह सकते हैं। जब वह चार्ज रहती है तो थकान की जगह स्फूर्ति रहती है, परंतु तनाव, चिंता और झुंझलाहट बनी रहे तो इसकी शक्ति घट जाती है। इन सबके समाधान के लिए यौगिक जीवनशैली अर्थात आहार और निद्रा पर विशेष ध्यान दिया गया है। सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व सात्विक भोजन कर लेना ठीक होता है, क्योंकि देर से भोजन करने पर पाचन क्रिया मंद पड़ती है और नींद भी नहीं आती है। इसके लिए उत्तेजना और तनाव दो प्रमुख कारण पाए गए हैं। ऐसे में जीवन को द्रष्टा के भाव से देखना और समझना जरूरी है।

मनुष्य स्वयं अपना मित्र और शत्रु दोनों होता है। जिसने खुद को जीत लिया वह अपना बंधु होता है। अन्यथा व्यक्ति अपने ही शत्रु की तरह बर्ताव करता है। स्वयं पर विजय की इस यात्रा में चित्त की चंचलता सबसे बड़ी बाधा है। चित्त को योग अभ्यास और वैराग्य से साधा जा सकता है। हमारे तमाम कष्ट इसीलिए उपजते हैं कि हम स्वयं को शरीर के स्तर तक सीमित मान लेते हैं। हालांकि तनिक विचार से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर तो हमारा है, परंतु हम शरीर मात्र नहीं हैं। इस तरह शरीर की सीमा को समझने से गंभीरता भी आती है और स्वयं को चैतन्य से जोड़कर पूर्णता एवं व्यापकता की सांभावना भी बनती है। योग इसका मार्ग प्रशस्त करता है।

(लेखक पूर्व कुलपति एवं शिक्षाविद् हैं)