सियासत का जरिया क्यों बनें मस्जिदें
मस्जिद वह स्थान है जहां व्यक्ति भक्ति और अध्यात्म के करीब होता है। नमाज व्यक्ति में आदर और श्रद्धा का भाव जगाती है।
रामिश सिद्दीकी
हजरत मुहम्मद साहब के अनुसार मस्जिद वह स्थान है जहां व्यक्ति भक्ति और अध्यात्म के करीब होता है। इस्लाम में मस्जिद बनाने का कारण यह था कि व्यक्ति वहां आकर खुदा से जुड़े और जीवन को सरलता से जीने के राज जाने। मस्जिद में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है नमाज। नमाज इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है। नमाज व्यक्ति में आदर और श्रद्धा का भाव जगाती है। शुक्रवार को दोपहर की नमाज को जुमुआह की नमाज कहते हैं। जुमुआह यानी एकत्रीकरण का दिन। जुमुआह की नमाज को सामुदायिक तौर पर पढ़ा जाता है। कुरान में कहा गया है कि जब जुमुआह की नमाज के लिए पुकारा जाए तो अल्लाह की याद की ओर चल पड़ो और दुनियावी तिजारत छोड़ दो। इस संदेश से यही स्पष्ट होता है कि जुमुआह की नमाज को ख़ुदा ने व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिए चुना है, लेकिन यदि आज कोई जुमुआह के दिन किसी बड़ी मस्जिद के पास से निकल जाए तो उसे लाउडस्पीकरों से ऐसी बातें भी सुनने को मिल जाएंगी जिनका धर्म-अध्यात्म से कोई रिश्ता नहीं।
अगर भारतीय महाद्वीप की बात करें तो यहां अधिकतर मस्जिदों का इस्तेमाल निजी और राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया जाता है। ईद की नमाज या जुमुआह की नमाज के दिन लोगों की खास नजर इस पर होती है कि मस्जिद में इमाम साहब क्या बोलते हैं? दुर्भाग्य से कई बार वे धर्म-अध्यात्म के बजाय राजनीतिक मसलों पर अपनी बात कहते हैं। यही वजह है कि जुमा या फिर ईद पर जब लाखों की तादाद में लोग नमाज पढ़कर मस्जिद से निकलते हैं तो वे मुश्किल से ही किसी सकरात्मक सोच से लैस होते हैं। नमाज उनके लिए एक धार्मिक रीति का हिस्सा भर बनकर रह गई है। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि भारतीय मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा यह बुनियादी बात समझने में विफल रहा है कि मस्जिद आध्यात्मिक विकास का केंद्र है न कि राजनीतिक गतिविधियों का मंच। यदि आप अरब देशों में जाएं तो वहां मस्जिदों का एक अलग रूप पाएंगे। मुझे अरब देशों में अनेक बार सफर करने का अवसर मिला। पहली बार जब मैं वहां गया और एक मस्जिद में शुक्रवार के दिन जुमुआह की नमाज पढ़ी तो मेरा अनुभव बिलकुल भिन्न रहा। वहां इमाम ने अपने पूरे संबोधन में राजनीति से जुड़ी कोई बात नहीं कही। जब नमाज संपन्न हो गई तो हमने वहां आम लोगों से बात की। उन्होंने बताया कि भारत की तरह यहां के इमाम जो चाहें सो नहीं बोल सकते। उन्हें इस मौके पर प्रत्येक सप्ताह सरकार द्वारा जारी एक संबोधन दिया जाता है। उन्हें वही पढ़ना होता है। उसके बाहर उन्हें कुछ भी पढ़ना मना होता है। जब हमने इसकी वजह समझनी चाही तो पता चला कि ज्यादातर अरब देशों में इमाम को राजनीतिक नहीं, बल्कि एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति की नजर से देखा जाता है और वे अपना यह कार्य तभी तक अच्छे से अंजाम दे सकते हैं जब तक उनका ध्यान पूरी तरह धार्मिक -आध्यात्मिक मसलों पर केंद्रित हो। यह जाहिर है कि भारत में अरब देशों की तरह ऐसा संभव नहीं कि सरकार यह तय करे कि मस्जिदों में इमामों को क्या बोलना चाहिए। अपने देश की ज्यादातर मस्जिदें वक्फबोर्ड के तहत आती हैं और उनके इमामों को वेतन भी इसी बोर्ड से मिलता है। हालांकि वक्फ बोर्ड एक तरह से सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं, फिर भी यह आसानी से संभव है कि भारतीय मुस्लिम समाज स्वयं यह सुनिश्चित करे कि मस्जिदें सियासत का केंद्र न बनने पाएं। यह एक अच्छी पहल होगी और इसका सही संदेश सारे देश में जाएगा।
अभी कुछ दिन पहले लंदन में एक मस्जिद के इमाम मोहम्मद महमूद ने एक ऐसे हमलावर की जान बचाई जिसने अपनी कार मस्जिद से निकल रहे लोगों पर जानबूझकर चढ़ा दी थी। इस हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गई और करीब दस लोग घायल भी हुए। हमलावर भागने की कोशिश में था, लेकिन मस्जिद से निकल रहे लोगों ने उसे पकड़कर पीटना शुरू कर दिया। ठीक इसी समय इमाम मोहम्मद महमूद ने दखल दिया और हमलावर को भीड़ से बचाकर मानवता की मिसाल पेश की। इन इमाम की दुनिया भर में सराहना हुई। इसके विपरीत हम कश्मीर में ऐसे तमाम इमाम देखते हैं जो मस्जिदों से भड़काऊ तकरीर देते हैं। वे लोगों को सेना-पुलिस पर हमले के लिए उकसाते हैं और भारत के खिलाफ भद्दे नारे लगाते हैं। क्या यह धर्मस्थल का दुरुपयोग नहीं? यह कहने में संकोच नहीं कि आज कश्मीर में तमाम मस्जिदों का धर्म और आध्यात्म से कोई सरोकार नहीं रह गया है। वे नकारात्मकता फैलाने के साथ लोगों को गुमराह भी कर रही हैं। आखिर ऐसी मस्जिदें धर्मस्थल कैसे कही जा सकती हैं? मौजूदा माहौल में भारत के सभी इमामों के लिए यह और ज्यादा जरूरी है कि वे इमाम मुहम्मद महमूद से कुछ सीखें। उन्हें इस्लाम की छवि के प्रति चिंतित होने के साथ ही अपने लोगों को सही दिशा देने और समाज में सद्भाव बढ़ाने के लिए आगे आना चाहिए। आज भारत में विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव की कमी का एक बड़ा कारण उनमें व्याप्त संवादहीनता है। इससे किसी को आपत्ति नहीं और न होनी चाहिए कि धार्मिक स्थल अपने धर्म का प्रचार करें परंतु यदि वे यह काम छोड़कर अवसरवादी और राजनीतिक हो जाएं तो इस पर आपत्ति होना स्वाभाविक है। आज एक-दूसरे के धर्म के मर्म को समझने के लिए धार्मिक स्थल से बेहतर स्थान और कोई नहीं। वे विभिन्न समाजों के बीच एक सकारात्मक संवाद का सिलसिला कायम कर सकते हैं।
रमजान के महीने के आखिरी जुमुआह को अल-विदा जुमुआह भी कहा जाता है। यह दिन धर्म के मूल को समझने और साथ ही आपसी भाईचारे को बढ़ाने का दिन बनना चाहिए। अगर अरब देशों के इमामों को मस्जिदों का राजनीतिक इस्तेमाल करने की आजादी नहीं तो फिर भारत में उन्हें ऐसी आजादी क्यों मिलनी चाहिए? मुस्लिम समाज को पहल करके ऐसी कोई व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि मस्जिदें आध्यात्मिक विकास का केंद्र बनें, न कि बौद्धिक पतन का जरिया या फिर सियासी मकसद का मंच। अच्छा हो कि मुस्लिम समाज यह जिम्मेदारी ख़ुद ले कि मस्जिदों का इस्तेमाल अन्य किसी मकसद से न होने पाए।
[ लेखक इस्लामिक विषयों के जानकार हैं ]
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