हाल में दिल्ली में नीति आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में कम समयावधि के विकास के साथ-साथ अगले सौ-वर्षों के लिए विकास का दृष्टि-पत्र बनाने पर जोर दिया और विकास में सभी राज्यों को भी जिम्मेदारी देने की बात कही, लेकिन जब सुशासन और विकास की बात होती है तो नौकरशाही उसके केंद्र में आ जाती है। नौकरशाही वह संरचना है जिसके माध्यम से सरकार योजनाओं को अमली जामा पहनाती है। लोकतंत्र में सरकारें तेजी से बदलती हैं और उनको कुछ विशेष करने का जनादेश प्राप्त होता है, जिसे करवाने के लिए वे उतावली भी होती हैं। अनेक मंत्री यह नहीं जानते कि कानून क्या कहता है; उनको लगता है कि जैसे भी हो, बस उनका काम होना चाहिए। कानून की दुहाई देने वाले अधिकारी उनको विरोधी दल के हितैषी लगते हैं। ऐसे अधिकारियों को वे न केवल उपेक्षित कर देते हैं, बल्कि उनसे व्यक्तिगत नाराजगी भी मान लेते हैं। इससे बचने के लिए अनेक अधिकारी-कर्मचारी वह भी करने लगते हैं जिसकी इजाजत कानून और नियम नहीं देते। ऐसा करना धीरे-धीरे उनको सुविधाजनक लगने लगता है और वे उसका लाभ भी लेने लगते हैं।

नौकरशाही के नजरिए में यह बदलाव कोई एक दिन में नहीं आया। स्वतंत्रता के बाद नौकरशाह अपने को शासक समझते थे और जनता को अपनी रियाया। यह मानसिकता अंग्रेजों की देन थी, लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे जनता को समझ में आने लगा कि अफसर 'मालिकÓ नहीं, वरन जनता के नौकर हैं। जब तक देश में कांग्रेस का शासन चलता रहा, अफसरों की पुरानी मानसिकता भी चलती रही, लेकिन 1967 में जैसे ही उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मद्रास और केरल विधानसभाओं में कांग्रेस बहुमत खो बैठी और जनसंघ, स्वतंत्र-पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी और वामपंथी दलों के प्रभाव वाली सरकारें बनीं वैसे ही नई सरकारों ने नौकरशाही पर दबाव बनाया। वे सरकारें नौकरशाही को गुलामी की मानसिकता से ग्रसित मानती थीं और उसके विधि-सम्मत और निष्पक्ष सुझावों को भी संदेह से देखती थीं। धीरे-धीरे नौकरशाही का एक बड़ा तबका उनके समक्ष नतमस्तक हो गया जिसे उन सरकारों ने पुरस्कृत करना शुरू कर दिया। इससे राज्यों के स्तर पर एक ऐसी प्रशासनिक-संस्कृति का जन्म हुआ जिसमें नौकरशाही का एक बड़ा वर्ग मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को तटस्थ एवं विधि-सम्मत सलाह देने के बजाय ऐसी सलाह देने लगा जो उनको पसंद आए। इससे न केवल चाटुकार-संस्कृति की विष-बेल फली-फूली, बल्कि नेता-अफसर गठजोड़ का नया दौर शुरू हो गया। गैर-कांग्रेसवाद के संवाहक राज्यों में क्षेत्रीय दल थे, जिनमें ज्यादातर ऐसे लोग नेता बन गए जो प्राय: आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त रहते थे। अत: भारतीय राजनीति में नेता-अफसर-अपराधी गठजोड़ की शुरुआत होते देर न लगी। आज सुशासन और विकास का लाभ जनता को इसीलिए नहीं मिल पाता, क्योंकि यही गठजोड़ उसमें रोड़ा बन जाता है।

इस प्रवृत्ति को केंद्रीय सरकार के स्तर पर लाने में कांग्रेस की भी अहम् भूमिका रही। 1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं और 'समाज में समाजवादी पैटर्नÓ लाने के अपने सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण और 1971 में राजा-महाराजाओं के 'प्रिवी-पर्सÓ और पदवी को खत्म करने जैसे क्रांतिकारी परिवर्तन किए। 1971 में ही बांग्लादेश युद्ध में भारी विजय के बाद उनके हौसले बुलंद हो गए और वह नौकरशाही से यह अपेक्षा करने लगीं कि वह उनकी सरकार और कांग्रेस पार्टी की नीतियों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाए। दिग्गज नौकरशाहों बीके नेहरू, टीएन कौल, पीएन धर और पीएन हक्सर आदि को अपने आंतरिक मंत्रणा समूह में लेकर वह अन्य सभी नौकरशाहों को प्रतिबद्ध नौकरशाही जैसा व्यवहार करने का दबाव बनातीं। पुरस्कार और प्रताडऩा की दुधारी तलवार के बलबूते इंदिरा गांधी ने नौकरशाहों में वही मानसिकता भर दी जो राज्यों के स्तर पर क्षेत्रीय दल भर रहे थे।

सवाल यह है कि क्या एक चाटुकार, भ्रष्ट और टूटे मनोबल वाली नौकरशाही अगले सौ-वर्षों के विकास के लिए सरकार की महत्वाकांक्षी वृहद् योजनाओं पर उस संकल्प से काम कर सकेगी जिसकी जरूरत पडऩे वाली है? नौकरशाही के अलावा अन्य कोई विकल्प भी तो नहीं; काम तो उनसे ही लेना है। इसीलिए जहां प्रधानमंत्री मोदी विकास की बात कर रहे हैं वहीं उनको इस पर भी ध्यान देना पड़ेगा कि उनकी कल्पना को साकार करने के लिए वर्तमान अभिकरण अर्थात नौकरशाही में कौन-कौन से क्रांतिकारी सुधार किए जाएं। इसके लिए नई प्रशासकीय-संस्कृति लाना बहुत जरूरी है, जिसमें काम करने वाले को पुरस्कार और न करने वाले के लिए दंड की व्यवस्था हो। प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप पूर्णत: बंद किया जाए, लेकिन प्रशासनिक-उत्तरदायित्व पूरी तरह सुनिश्चित हो। आज छोटे से छोटा सरकारी कर्मचारी भी दो-चार नेताओं या मंत्रियों को अपनी जेब में रखता है।

भारत सरकार ने 1966 में मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रथम और 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में द्वित्तीय प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया और उनके अनेक सुझाओं को लागू भी किया, लेकिन आज दैनिक प्रशासनिक कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए अभिशाप बन गया है। नौकरशाही का कुछ हिस्सा आज भी अपने व्यावसायिक आदर्शों की मर्यादा को संजोये हुए है, लेकिन उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। प्रशासकीय संस्कृति में सुधार अत्यंत जरूरी है, लेकिन वह राजनीतिक संस्कृति में समानांतर सुधार के बिना संभव नहीं। देश के सामने केवल विकास की ही चुनौती नहीं है, विकास के लिए जो माध्यम प्रयुक्त होगा-अर्थात नेता और नौकरशाही, उसमें भी सुधार की गंभीर चुनौती है। राजनीतिज्ञों को समझना होगा कि केवल कुछ योजनाओं के लागू होने से ही हमारा समाज विकसित नहीं हो सकता। लोकतंत्र में विकास को सार्थक बनाने के लिए मंत्री, नेता, नौकरशाह और संपन्न सभी लोगों को साधारण लोगों की तरह ही कानून का पालन करना होगा। सत्तापक्ष और विपक्ष के राजनीतिज्ञों को इस बात के लिए नौकरशाहों को प्रोत्साहित करना पड़ेगा कि वे अपना काम बिना किसी राजनीतिक दबाव के करें, लेकिन उन पर प्रशासनिक दक्षता, प्रभावशीलता, उत्तरदायित्व और पारदर्शिता का कड़ा पहरा रहेगा। जब ऐसा होगा तभी नौकरशाहों की मानसिकता बदलेगी और वे समर्पित होकर अगले सौ वर्षों की जरूरत के अनुरूप देश के विकास में निर्भीकता से जुट सकेंगे।

[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पालिटिक्स में निदेशक हैं ]