जागरण संपादकीय: समय पर न्याय मिलने का इंतजार, न्यायपालिका से डगमगा सकता है लोगों का भरोसा
मोदी सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल के बाद भी अगर कोई एक जरूरी काम नहीं हो सका है तो वह है समय पर न्याय देने की किसी ठोस व्यवस्था का निर्माण न होना। मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में अंग्रेजों के जमाने में बने आपराधिक कानूनों की जगह तीन नए कानूनों पर अमल करना शुरू कर दिया है। इन्हें इसी जुलाई में अमल में लाना प्रारंभ किया गया।
संजय गुप्त। पिछले दिनों संसद में कानून एवं न्याय राज्य मंत्री अर्जुन मेघवाल ने यह जानकारी दी कि देश भर में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 1114 पदों में से 350 पद रिक्त हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के कुल पद 160 हैं। इनमें से 74 पद रिक्त हैं। पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में जजों के कुल 85 पद हैं, जिनमें से 31 पद खाली पड़े हुए हैं।
बॉम्बे हाई कोर्ट में जजों के कुल 94 पद हैं, जिनमें से 28 पद खाली हैं। इसी तरह दिल्ली हाई कोर्ट के 60 में से 21 खाली हैं। कलकत्ता हाई कोर्ट में 72 में से 27, पटना हाई कोर्ट में 53 में से 19, राजस्थान हाई कोर्ट में 50 में से 18, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में 53 में से 16 और तेलंगाना में 42 में से 14 पद खाली हैं। अन्य उच्च न्यायालयों में भी ऐसी ही स्थिति है।
यह तब है, जब छह माह पहले रिक्त होने वाले पदों की सूचना देने का नियम है। लगता है कि इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जाता। एक समस्या यह भी देखने को मिलती है कि न्यायाधीशों के नामों का चयन होने और उन पर सरकार की स्वीकृति पाने में समय लगता है। कई बार न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले कालेजियम की ओर से यह शिकायत भी सुनने को मिलती है कि सरकार समय पर न्यायाधीशों के नामों को हरी झंडी नहीं दिखाती।
यह ठीक नहीं कि उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में न्यायाधीशों के पद रिक्त बने रहें। सरकार और कालेजियम के बीच कई बार जजों के नामों को लेकर इस कारण सहमति नहीं बन पाती, क्योंकि सरकार कुछ नामों को लेकर संतुष्ट नहीं होती। कालेजियम व्यवस्था पर समय-समय पर प्रश्न उठते रहते हैं, क्योंकि वर्तमान में इस व्यवस्था के तहत जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद जजों की नियुक्ति के लिए एक नया कानून बनाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को वह रास नहीं आया और उसने उसे रद कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट कुछ भी कहे, यह ठीक नहीं कि जज ही जजों की नियुक्त करें। किसी भी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता। जितना आवश्यक यह है कि समय पर न्याय देने की व्यवस्था बने, उतना ही यह भी कि कालेजियम व्यवस्था में बदलाव हो। बदलाव इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि खुद सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि कालेजियम व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। आखिर इस आवश्यकता की पूर्ति कब होगी?
समस्या केवल यह नहीं कि उच्च न्यायालयों में जजों के पद रिक्त हैं। समस्या यह भी है कि विभिन्न ट्रिब्यूनलों में न्यायाधीशों के पद खाली पड़े हैं। इसी तरह निचली अदालतों में न्यायाधीशों के पद रिक्त बने रहते हैं। किसी भी देश में नियम-कानूनों को लागू कराने में जो समस्याएं आड़े आती हैं, उनका निदान न्यायालयों को ही करना पड़ता है, लेकिन अपने देश में न्यायालय यह काम तत्परता से नहीं कर पाते। इसका एक कारण न्यायाधीशों की कमी के अलावा न्यायालयों में संसाधन का अभाव भी है। इसी तरह तारीख पर तारीख का सिलसिला भी समय पर न्याय उपलब्ध कराने में एक बड़ी बाधा है।
भारत एक विकासशील देश है। यदि देश को विकासशील से विकसित बनना है तो अन्य अनेक लक्ष्यों को पाने के साथ समय पर न्याय देना भी सुनिश्चित करना होगा। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश भर में निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में पांच करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इनमें से तमाम ऐसे हैं, जो दशकों से लंबित हैं। यह भी आश्चर्य की बात है कि बड़ी संख्या में मुकदमे ऐसे हैं, जिनमें एक पक्ष जनता और दूसरा सरकार है। आखिर सरकार जनता से मुकदमेबाजी में क्यों उलझी रहती है? समय पर न्याय न मिलने से विकास की गति शिथिल होती है और कई आर्थिक-सामाजिक समस्याएं भी पैदा होती हैं।
मोदी सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल के बाद भी अगर कोई एक जरूरी काम नहीं हो सका है तो वह है समय पर न्याय देने की किसी ठोस व्यवस्था का निर्माण न होना। मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में अंग्रेजों के जमाने में बने आपराधिक कानूनों की जगह तीन नए कानूनों पर अमल करना शुरू कर दिया है। इन्हें इसी जुलाई में अमल में लाना प्रारंभ किया गया। चंडीगढ़ इन कानूनों का अनुपालन करने वाला पहला केंद्र शासित राज्य बना।
इस सिलसिले में चंडीगढ़ में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि इन तीनों कानूनों से समय पर न्याय मिलना सुनिश्चित होगा। इस संदर्भ में उन्होंने कुछ उदाहरण भी गिनाए। ये उदाहरण उम्मीद जगाने वाले तो हैं, लेकिन देखना है कि इन तीनों आपराधिक कानूनों के जरिये सभी मामलों में समय रहते न्याय हो सकेगा या नहीं?
यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि न्यायालयों में तारीख पर तारीख का सिलसिला आसानी से समाप्त होता नहीं दिखता। यह तब समाप्त होगा, जब मामलों को निश्चित समय सीमा में निपटाने का तंत्र सही तरह से काम करता हुआ दिखाई देगा। आवश्यक केवल यह नहीं है कि निचली अदालतें समय पर न्याय दें। आवश्यक यह भी है कि उच्चतर अदालतें ऐसे मामलों का निपटारा शीघ्र करें। ऐसा करके ही लोगों का न्यायपालिका पर भरोसा कायम रखा जा सकता है।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि समय-समय पर न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका से जुड़े लोग यह कहते रहते हैं कि समय पर न्याय न मिलना एक बड़ी समस्या है, लेकिन इस समस्या को दूर करने के जैसे उपाय होने चाहिए, वैसे नहीं हो रहे हैं। यदि न्याय देने में देरी का सिलसिला थमा नहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब न्यायपालिका पर से लोगों का भरोसा डिग जाएगा। यह अच्छा नहीं होगा।
इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि कई लोग अपने मामलों को सुलटाने के लिए थाना-कचहरी जाने के बजाय न्याय प्रक्रिया से इतर उपायों का सहारा लेने लगे हैं। यह किसी भी लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता की बात होनी चाहिए। किसी भी सूरत में लोगों को यह नहीं लगना चाहिए कि अदालत का दरवाजा खटखटाने का मतलब है समय के साथ धन की बर्बादी करना और फिर भी न्याय के लिए प्रतीक्षारत बने रहना। लोगों को समय पर आसानी से न्याय सुलभ हो, यह हमारे नीति-नियंताओं की पहली प्राथमिकता बननी चाहिए।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]













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