गिरीश्वर मिश्र: व्यस्त दैनिक जीवन में हम सब कुछ अपने को ही ध्यान में रखकर सोचते-विचारते हैं और करते हैं। उस पृथ्वी को भूल जाते हैं, जिस पर हमारा यह जीवनयापन हो रहा है और हमारी बदलती जीवनशैली के कारण इसके अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जबकि भारतीय चिंतन परंपरा में प्रकृति के सभी तत्वों को प्राथमिकता मिलती आई है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जैसे पंच महाभूत जीवन से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। वनस्पति, जल, अंतरिक्ष और पृथ्वी को लेकर वैदिक चिंतन में प्रकृति की महिमा का बड़ा बखान किया गया है।

वर्ष चक्र की एक यज्ञ के रूप में कल्पना करते हुए ऋग्वेद में वसंत ऋतु को ‘घी’, ग्रीष्म को ‘समिधा’ शरद को ‘हवि’ कहा गया है। पृथ्वी पर वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्य साथ-साथ रहते आए हैं। वे सहजीवी रहे हैं। सहजीवन में आदान-प्रदान होता है और परस्पर निर्भरता को पहचानते हुए प्रकृति की रक्षा भी की जाती है। प्रकृति ‘माता’ की भांति पूज्य है। वेद में भूमि को मां और स्वयं को पृथ्वी की संतति कहा गया है: माता भूमि: पुत्रोहम् पृथिव्या:। पृथ्वी के प्रति आभार का सहज भाव भारतीय समाज में रहा है। प्रकृति के विभिन्न पक्ष ईश्वर के प्रत्यक्ष शरीर कहे गए हैं। पीपल, नीम और वट के वृक्षों की पूजा की प्राचीन परंपरा रही है। प्राणवायु देने वाले वृक्षों के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विभिन्न वनस्पतियों के औषधीय गुणों को आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान मिला है और ‘वृक्षायुर्वेद’ एक शास्त्र के रूप में विकसित हुआ।

नदी, वृक्ष और पशु-पक्षी मिलकर पारिस्थितिकी का निर्माण करते हैं। पारिस्थितिकी के संतुलन में इनका समान महत्व है। लोक मानस में अभी भी गीतों, कथाओं, जीवन-संस्कारों, लोकाचारों, रीति-रिवाजों तथा उपासना के यज्ञादिक कृत्यों में विभिन्न पौधों और वृक्षों की जीवंत उपस्थिति बनी हुई है। आम्र-पल्लव, दूर्वा और तुलसी-दल के बिना पूजा विधि पूरी नहीं होती। गंगा जैसी नदियों को भी शादी-विवाह जैसे अवसरों पर न्योता देने की प्रथा है। इनमें स्नान कर पुण्य-लाभ कमाने का आकर्षण अभी भी बना हुआ है। कुंभ की परंपरा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रकृति के प्रति आकर्षण का एक आधार यह भी है कि नैसर्गिक परिवेश का सौंदर्य आत्मिक तृप्ति देने वाला होता है। सागर, वन, झील, पर्वत, वृक्ष और नदी की संगत हमारे आध्यात्मिक जीवन, सृजन और सामुदायिक जीवन को समृद्ध बनाती है। उसका स्वाद लेने के लिए लोग दुर्गम स्थानों की यात्रा करते नहीं थकते। इतिहास से पुष्टि होती है कि नदियां पूरे विश्व में मानव सभ्यता की जननी रही हैं। उन्हीं के निकट संस्कृतियों के विकास की गाथाएं लिखी जाती रही हैं।

भारत में प्राकृतिक संसाधनों को संग्रह कर उपभोग किया जाता रहा, परंतु बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था के साथ संसाधनों के असीमित उपयोग की लालसा बढ़ी। अंग्रेजी उपनिवेश के दौरान उनके अपने हितों के लिए जंगलों की कटाई और खनन का दौर शुरू हुआ और प्राकृतिक संपदा का घोर शोषण आरंभ हुआ। निर्वनीकरण और बांधों का निर्माण आज भी जारी है। यह दुखद है कि पर्यावरण जैसे गंभीर प्रश्न के साथ भी प्रतीकात्मक ढंग से व्यवहार किया जाता है। पर्यावरण की शुद्धता और स्वच्छता का सवाल जीवन से जुड़ा है, परंतु सत्ता और कारपोरेट दुनिया की मिलीभगत के बीच जल, जीवन और जंगल पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है। प्रकृतिभक्षी दृष्टि के चलते पारिस्थितिक असंतुलन के फलस्वरूप अब आए दिन अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, अकाल और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं के संकट छाए रहते हैं। प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। जैव विविधता घट रही है। आधी सदी से कम समय में पक्षियों, स्तनधारियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृपों में औसतन 68 प्रतिशत कमी आई है। जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा और पुनर्स्थापना आवश्यक है। इस दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र द्वारा जीडीपी में प्रकृति के सच्चे मूल्य को भी शामिल करने की बात कही जा रही है।

कृषि योग्य भूमि बनाने के उपक्रम में 50 प्रतिशत वृक्ष खत्म हुए हैं। समुद्र के उपयोग में भारी बदलाव से सामुद्रिक पारिस्थितिकी भी बदली है। उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग की वजह से रसायन भारी मात्रा में पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। भूमि का क्षरण हो रहा है। वन आवरण घटने पर है। नदियों के जल स्तर में गिरावट आ रही है। भूजल स्तर घट रहा है। ग्लेशियर खिसक रहे हैं। जीवन शैली में आए बदलाव से तरह–तरह की गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। प्रकृति और मनुष्य के बीच संघर्ष का परिणाम पर्यावरण संकट के रूप में आ रहा है। हवा, पानी और भोजन जैसे जीवन के लिए अनिवार्य तत्व घोर प्रदूषण की गिरफ्त में आ रहे हैं। मौसम में बदलाव को लेकर पृथ्वी पर आपातकाल लगाने जैसी स्थिति उभर रही है। पृथ्वी पर हावी हो रहे मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों की पूरी शृंखला को तनावग्रस्त बना दिया है।

संपूर्ण जैविक विश्व एक इकाई है और मनुष्य को इससे अलग नहीं रखा जा सकता। अन्य तत्वों की तरह वह भी पर्यावरण की व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। इसलिए समग्र प्रकृति के साथ जुड़कर और तालमेल के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है। इस दिशा में धरती की सीमा में ही उपभोग और उत्पादन एकमात्र विकल्प है। इसके लिए आमजन के मन में प्रकृति प्रेम का भाव पैदा करना होगा। जल संरक्षण, वृक्षारोपण और जैविक खेती की ओर ध्यान देना होगा। जीव जगत की पारस्परिकता को स्वीकार करते हुए दायित्व बोध जगाना होगा और आत्मीय रिश्ता बनाना होगा। प्रकृति को देखने और उसे महत्व देने के नजरिये को बदलना होगा। इस पृथ्वी दिवस पर हमारा यही संकल्प होना चाहिए।

(लेखक पूर्व कुलपति हैं)