शिल्प कुमार। बढ़ते शहरीकरण ने हमारे जीवन स्तर को ऊंचा उठाने और उसे व्यवस्थित करने की दिशा में भले ही महती भूमिका निभाई हो, लेकिन उससे हमारे समक्ष कई चुनौतियां भी उत्पान हुई हैं। कूड़े के बढ़ते ढेर मौजूदा शहरी व्यवस्था प्रबंधन को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। समस्या इतनी विकराल है कि पुराने कूड़े से हम जब तक निबट भी नहीं पाते हैं तब तक नए कूड़े का ढेर खड़ा हो जाता है। अकेले दिल्ली को ही लें। यहां रोजाना करीब नौ हजार टन कूड़े का ढेर पैदा हो जाता है, जिसका निपटान नहीं हो पा रहा है। कूड़े के निपटारे की उचित व्यवस्था नहीं हो पाने की समस्या से दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम शहर जूझ रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि इस भयावह समस्या के निदान के लिए अपने देश के पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का समुचित इस्तेमाल करते हुए कूड़े के उचित निपटान की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया जाए।

2011 की जनगणना के मुताबिक पूरे देश में करीब 4041 शहरी निकाय हैं। अभी स्थानीय निकायों के कर्मचारी कूड़े को ले जाकर डंपिंग ग्राउंड में डाल देते हैं। कूड़े के उचित निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण डंपिंग ग्राउंड कूड़े का पहाड़ बन जाता है। इन कूड़े के ढेर पर आवारा पशु और पक्षी भोजन की तलाश में मंडराते नजर आते हैं। फिर बचा हुआ कूड़ा सड़ता रहता है, इससे कई प्रकार के जीवाणु-विषाणु और बदबू फैलते हैं। जिसकी वजह से डंपिंग ग्राउंड के आसपास के कई किलोमीटर के इलाके रहने लायक नहीं रह जाते हैं।

ऐसे मिलेगी मदद

अगर ‘स्थानीय शहरी निकाय’ किसी सहकारी संस्था को घरों, होटलों, रेस्टोरेंटों, ढाबों, फल-सब्जी मंडियों, अस्पतालों, पार्कों और सड़कों से कूड़ा इकट्ठा करके उसके उचित निस्तारण का काम सौंप दें तो इससे न सिर्फ शहरी निकायों की इस मद में खर्च होने वाली बड़ी रकम बचेगी, बल्कि कूड़ा उठाने में होने वाली लापरवाही पर लगाम भी लगेगी।

सवाल यह है कि आखिर यह कार्य होगा कैसे? इस कार्य के लिए शहरी निकाय द्वारा सहकारी संस्था या निजी कंपनी को शहर के बाहर बंजर, रेतीली या पथरीली यानी खेती के लिए अनुपयुक्त जमीन को लंबी अवधि के लिए कूड़ा निस्तारण के लिए नि:शुल्क लीज पर उपलब्ध कराना होगा। छोटे शहरी निकाय शहर से दूर एक या दो तथा बड़े निकाय अपनी आवश्यकता के अनुसार ऐसी जगहों को चिन्हित कर सकते हैं जहां उक्त शहर के कूड़े का निस्तारण हो सके।

कमाई भी होगी और सफाई भी

फिर बात उठती है कि आखिर सहकारी संस्था के कर्मचारी कैसे कूड़े से कमाई कर सकेंगे। इसके लिए स्थानीय शहरी निकाय व्यवस्था द्वारा सहकारी संस्थाओं को ट्रेंड करना होगा। इससे न सिर्फ वे कूड़े का निस्तारण प्रभावी ढंग से कर सकेंगे, बल्कि इससे अपनी आय भी बढ़ा सकेंगे।

इस व्यवस्था के तहत सहकारी संस्था के कर्मचारी घरों, होटलों, रेस्टोरेंटों, ढाबों को दो-दो थैले देंगे, जिनमें से एक जैविक कचरे के लिए होगा, जबकि दूसरा अजैविक कचरे के लिए। घरों से सप्ताह में दो से लेकर तीन बार, जबकि होटलों, ढाबों और रेस्टोरेंटों से संस्था के लोग प्रतिदिन जाकर कूड़ा उठाएंगे। फिर संस्था के लोग कूड़े से भरे बैग लेकर उनकी जगह पर दूसरे खाली बैग दे देंगे। इसी प्रकार सब्जी, फल या फूल मंडी, रेस्टोरेंटों, अस्पतालों वगैरह से भी कूड़ा उठाएंगे। ये सारा कचरा इकट्ठा करने के बाद शहरी निकाय द्वारा कूड़ा निपटारे के लिए उपलब्ध कराई गई भूमि तक पहुंचा दिया जाएगा। यहां फिर अजैविक कचरे की छंटाई होगी। उसमें से प्लास्टिक, लोहा, टिन, कांच आदि को अलग-अलग करके उन्हें कबाड़ के रूप में बेच दिया जाए। इन्हें पुन: रिसाइकल करने वाली इकाइयां खरीद लेंगी। इससे भी सहकारी संस्था को कमाई हो सकेगी। इसके अलावा पॉलिथीन से पेट्रोल या पेट्रोलियम पदार्थ बनाए जा सकते हैं। पुराने टायरों का इस्तेमाल सड़कों को बनाने में किया जा सकता है। सहकारी संस्था इन सामग्रियों को बेचकर आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकती हैं।

मिथेन गैस और खाद बनाकर भी होगी कमाई

रही बात जैविक कचरे की तो उसमें जरूरी बैक्टीरिया और एंजाइम मिलाकर मीथेन गैस और जैविक खाद का उत्पादन किया जा सकता है। ऐसी तकनीक अब सुलभ हैं। इस तरह से प्राप्त जैविक खाद उच्च गुणवत्ता वाली होती है जिसका इस्तेमाल खेती और बागवानी में किया जा सकता है। वहीं मीथेन गैस राज्य बिजली बोर्ड या बिजली बनाने वाली इकाइयां खरीद सकती हैं। इससे भी सहकारी संस्था को कमाई हो सकती है। वैसे मीथेन गैस बनाने या जैविक खाद तैयार करने की तकनीक इंडियन ऑयल और आइआइटी के पास है। सहकारी संस्थाओं को या तो इनसे तकनीकी मदद दिलाई जा सकती है या फिर शहरी निकाय खुद आगे बढ़कर सहकारी संस्थाओं को इनसे सहयोग दिला सकते हैं।

इस तरीके से उत्पादित खाद को शहरी निकायों का बागवानी विभाग, वन विभाग, कृषि विभाग, कृषि विश्वविद्यालय, विभिन्न महाविद्यालय या वे अन्य संस्थाएं भी खरीद सकती हैं जहां बागवानी से जुड़े कार्य होते हों। शहरी लोग भी अपने किचेन गार्डन या बागवानी के लिए इसे खरीद सकते हैं। वैसे आज बाजार में ऐसी खाद पचास से पचपन रुपये किलो बिकती है। शहरी निकाय अगर इस तरह सोचें तो न सिर्फ शहरों को कचरे से मुक्ति मिलेगी, बल्कि सहकारी संस्थाओं के जरिये हजारों नौजवानों को उचित रोजगार के अवसर भी मिलेंगे, तब ही हम सरकार के स्वच्छ भारत अभियान का सपना साकार कर सकेंगे।

(लेखक उत्तराखंड भाजपा कार्यकारिणी के सदस्य हैं)