मनु गौड़ : विश्व जनसंख्या दिवस के बाद से जनसंख्या नियंत्रण को लेकर जो बहस छिड़ी, उसके संदर्भ में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएचएफएस-5 की रिपोर्ट का खूब हवाला दिया जा रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रजनन दर में लगातार कमी आ रही है और देश अब प्रतिस्थापन दर को प्राप्त करने वाला है। इस रपट के आधार पर यह भी कहा जा रहा है कि भारत को अब जनसंख्या नियंत्रण की कोई आवश्यकता नहीं है। इस मामले में सबसे पहले तो यह समझना होगा कि देश में जनसंख्या के सबसे प्रामाणिक आंकड़े 2011 की जनगणना के हैं। इस जनगणना के अनुसार देश में कुल विवाहित महिलाओं की संख्या 33,96,21,277 थी, जिनमें से 18,19,74,153 महिलाएं ऐसी थीं, जिनके दो या दो से कम बच्चे थे और 15,76,47,124 महिलाएं ऐसी थीं, जिनके तीन या उससे ज्यादा बच्चे थे।

क्या इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत प्रतिस्थापन दर को प्राप्त करने वाला है? एनएचएफएस-5 की रिपोर्ट को समझने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि यह महज एक सैंपल सर्वे है। इसमें देश के लगभग 30 करोड़ परिवारों में से मात्र सात लाख परिवारों अर्थात मात्र .23 प्रतिशत परिवारों का सर्वे किया गया। इस सैंपल साइज में मजहब, क्षेत्र, जाति आदि के आधार पर कुल जनसंख्या के प्रतिशत को भी ध्यान में रखकर सैंपल एकत्र नहीं किए जाते।

स्पष्ट है कि ऐसे सैंपल में सभी का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता। यूएन पापुलेशन प्रास्पेक्ट्स की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत को 2027 में चीन की जनसंख्या को पार करना था। अब यूएन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2023 में ही भारत की जनसंख्या चीन से अधिक हो जाएगी। एक ओर तो यह कहा जा रहा है कि भारत की प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर को प्राप्त करने वाली है, वहीं दूसरी ओर 2027 के स्थान पर चार वर्ष पहले 2023 में ही जनसंख्या के मामले में भारत का चीन को पीछे छोड़ना क्या तेजी से जनसंख्या बढ़ने की ओर इशारा नहीं करता? दोनों बातों का एक साथ सच होना असंभव ही है।

11 मई 2000 को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में पैदा हुई बच्ची आस्था को देश का सौ करोड़वां बच्चा बताया गया था। 2001 में हुई जनगणना में भारत की जनसंख्या लगभग 102 करोड़ बताई गई और वर्तमान में यूएन के आंकड़ों के अनुसार भारत की जनसंख्या 142 करोड़ बताई जा रही है। 2021 में होने वाली जनगणना को कोविड-19 के कारण विलंब से प्रारंभ किया गया है। इसकी रिपोर्ट आने के बाद स्थिति और साफ हो जाएगी कि भारत की वास्तविक जनसंख्या कितनी है, फिर भी यदि हम वर्तमान में उपलब्ध सरकारी आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि 2000 से 2021 तक भारत की कुल जनसंख्या में लगभग 42 करोड़ की वृद्धि हुई। यानी गत 21 वर्षों में लगभग दो करोड़ प्रतिवर्ष की वृद्धि।

यदि हम भारत की जन्म दर और मृत्यु दर देखें तो पता चलता है कि देश में प्रतिवर्ष लगभग 2.5 करोड़ बच्चों का जन्म होता है और लगभग एक करोड़ लोगों की मृत्यु होती है। इस हिसाब से देश में प्रतिवर्ष लगभग 1.5 करोड़ की जनसंख्या वृद्धि होनी चाहिए, जबकि गत 21 वर्षों में लगभग दो करोड़ प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज हुई है। स्पष्ट है कि भारत की जनसंख्या की गुत्थी को जानबूझकर उलझाया जा रहा है, ताकि भारत अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने का प्रयास न करे। लगता है कि कुछ विकसित देश और वैश्विक संगठन यह नहीं चाहते कि भारत अपनी जनसंख्या नियंत्रित कर एक विकसित देश बने और महाशक्ति के तौर पर उभरे, जैसा कि चीन ने सफलतापूर्वक कर दिखाया है।

भ्रांति फैलाने के लिए यह भी कहा जाता है कि चीन की एक बच्चे वाली नीति नाकाम हो गई है, जबकि चीन इस नीति को 35 वर्षों के लिए 40 करोड़ नए बच्चों के जन्म को नियंत्रित करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लेकर आया था। उसने यह लक्ष्य 38 वर्षों में प्राप्त किया। अपनी प्रतिस्थापन दर को बनाए रखने के उद्देश्य से उसने अब कहीं-कहीं पर दो और तीन बच्चों के जन्म की अनुमति दी है। इस पर कहा जाता है कि बूढ़ों की संख्या अधिक होने के कारण चीन ऐसा कर रहा है। यदि यह सही है तो किसी देश को युवा देश रहने के लिए अपनी जनसंख्या को लगातार बढ़ाते रहना होगा, फिर भारत को जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए और परिवार नियोजन पर भारतीय करदाताओं के धन को खर्च करना तुरंत बंद करना चाहिए, क्योंकि 1974 से आज तक करदाताओं का लगभग तीन लाख करोड़ रुपया परिवार नियोजन कार्यक्रम पर भारत सरकार खर्च कर चुकी है।

विश्व के कुछ विशेषज्ञों के विचारों को भी इस उद्देश्य से समझना चाहिए कि जनसंख्या मानव सभ्यता को किस दिशा में लेकर जाने वाली है। 1968 में फारेन पालिसी एसोसिएशन ने अपनी 15वीं वर्षगांठ के अवसर पर विश्व के तमाम वैज्ञानिकों को अगले 50 वर्षों में विश्व की तस्वीर कैसी होगी, इस विषय पर तीन दिवसीय कार्यक्रम में आमंत्रित किया। इस कार्यक्रम में दिए गए सुझावों को एक पुस्तक ‘टुवर्ड द ईयर 2018’ में लिपिबद्ध किया गया। यदि आज हम उसे पढ़ें तो पाएंगे कि उन विज्ञानियों की सलाह न मानकर आज हम अधिक जनसंख्या के कारण स्वच्छ पर्यावरण के लिए तरस रहे हैं।

1992 में पहली बार जब विश्व की आबादी 500 करोड़ से अधिक पहुंची, तब बढ़ती आबादी को सबसे बड़ी चिंता बताते हुए इसे संतुलित करने का सुझाव दिया गया था। 2017 में सिंगापुर में टाइम्स हायर एजुकेशन ग्रुप द्वारा आयोजित कार्यक्रम में 50 नोबेल पुरस्कार विजेता विज्ञानियों ने अधिक जनसंख्या को सबसे बड़ा खतरा बताया। इन विज्ञानियों और विशेषज्ञों के कथन पर प्रश्न नहीं खड़े किए जा सकते।

(लेखक जनसंख्या मामलों के विशेषज्ञ हैं)