सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त हों मंदिर: सुप्रीम कोर्ट ने श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर का नियंत्रण हिंदू समाज को सौंपा
जस्टिस बोबडे का भी मानना है कि यदि प्रबंधन में कोई विवाद आ भी जाए तो उसका निस्तारण कर मंदिर वापस समाज को ही दिए जाने चाहिए।
[ विकास सारस्वत ]: सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ की ओर से श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर पर दिए गए निर्णय ने हिंदू मंदिरों के प्रबंधन में सरकारी हस्तक्षेप की समस्या को भी उजागर करने का काम किया है। तमिलनाडु में चिदंबरम स्थित नटराज मंदिर के बाद यह दूसरा अवसर है जब सुप्रीम कोर्ट ने किसी प्रमुख मंदिर का नियंत्रण सरकारी हाथों से लेकर वापस हिंदू समाज को सौंपा है। दोनों ही मामलों ने उस दोहरी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को चुनौती दी है, जिसके बारे में जगन्नाथ पुरी मंदिर की सुनवाई करते समय मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसए बोबडे ने पूछा था कि आखिर सरकारी कर्मचारी मंदिरों का प्रबंधन क्यों कर रहे हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू मंदिरों की पवित्रता को नष्ट होने से बचाया
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस यूयू ललित और इंद्रा मल्होत्रा की बेंच ने 2011 के केरल उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए न सिर्फ त्रावणकोर राजपरिवार को सेवायत यानी आराध्य के भूलोक पर प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी, बल्कि परिवार द्वारा सुझाए गए श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर प्रबंध तंत्र को भी स्वीकार किया। इस निर्णय ने जहां परंपराओं का सम्मान और रजवाड़ों द्वारा भारतीय संघ में विलय की शर्तों का आदर किया वहीं हिंदू मंदिरों की पवित्रता को नष्ट होने से बचाया है।
दक्षिण भारत के करीब 40 हजार मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं
गौरतलब है कि जहां दक्षिण भारत के करीब 40 हजार मंदिर ब्रिटिश काल में बने एचआरसीई एक्ट के अंतर्गत सरकारी नियंत्रण में हैं वहीं श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर में सरकारी हस्तक्षेप की गुंजाइश परंपरा एवं ऐतिहासिक अनुबंधों के तिरस्कार के कारण उत्पन्न हुई। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराज अनिड़ोम तिरुनाल मार्तंड वर्मा द्वारा श्री पद्मनाभस्वामी को त्रावणकोर का राजा एवं स्वयं को उनका दास घोषित किया गया। तबसे लेकर राजपरिवार ने इस पारंपरिक दायित्व का उसी भावना से निर्वहन किया। वह मुख्य संरक्षक होने के नाते राजकीय छत्र, मुकुट, मणिकंध, पुरखों की तलवार एवं धनसंपदा आदि सब श्री पद्मनाभस्वामी के चरणों में अर्पित करते रहे। भारतीय संघ में विलय के समय महाराज चिथिरा तिरुनल बलराम वर्मा ने नवगठित त्रावणकोर-कोचीन राज्य के राजप्रमुख की हैसियत से भारतीय संघ को अपनी शपथ देने में यह कहकर असमर्थता जताई थी कि वह पहले ही श्री पद्मनाभस्वामी को अपनी शपथ दे चुके हैं। 1991 में महाराज बलराम वर्मा की मृत्यु के बाद परंपरा के अनुसार उनके छोटे भाई उत्राड़म तिरुनल मार्तंड वर्मा मंदिर के संरक्षक बने।
मंदिर परिसर में अवैध रूप से काबिज लोगों ने दी संरक्षक पद की वैधानिकता को चुनौती
कानूनी विवाद तब उत्पन्न हुआ जब मंदिर परिसर में अवैध रूप से काबिज कुछ लोगों ने 2009 में बेदखली के नोटिस के जवाब में तिरुनल मार्तंड वर्मा के संरक्षक पद की वैधानिकता को ही चुनौती दी। केरल उच्च न्यायालय में पहुंचे इस विवाद में प्रिवी पर्स खत्म करने वाले 26वें संविधान संशोधन का हवाला देते हुए उनके संरक्षक पद पर ही सवाल उठा दिए गए।
2011 में केरल हाईकोर्ट ने मंदिर के खजाने को खोलने के आदेश दे दिया था
2011 में केरल हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में न सिर्फ चुनौती देने वालों की दलील को स्वीकारा, बल्कि अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़कर उन मालखानों को खोलने के आदेश दे दिए जिनमें मंदिर की संपत्ति रखी हुई थी। कोर्ट ने मंदिर की संपत्ति को मंदिर में ही संग्रहालय बनाकर प्रदर्शित करने का भी आदेश दिया। ऐसा करते समय उच्च न्यायालय ने टिकट लेकर परिसर में प्रवेश देने के आदेश भी दिए।
केरल उच्च न्यायालय के आदेश ने मंदिर की संपत्ति को राज्य सरकार की झोली में डाल दिया था
अन्य मंदिरों की तरह श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर की संपत्ति पर भी केरल की सरकारों खासकर वामपंथियों की नजर रही है। केरल उच्च न्यायालय के आदेश ने मंदिर की संपत्ति को एक तरह से राज्य सरकार की झोली में डाल ही दिया था। केरल उच्च न्यायालय के फैसले में मंदिर के पांच मालखानों को खुलवा कर संपत्ति की विवरणी तैयार कराई गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने छठवां कक्ष खोलने या न खोलने का अधिकार नई प्रबंध समिति को दे दिया
छठवां कक्ष, जिसे क्रमांक ‘बी’ कहा गया, के खोले जाने के क्रम में ही राज परिवार ने सर्वोच्च न्यायालय से आगे की प्रक्रिया पर रोक लगाने का स्टे ऑर्डर ले लिया। राज परिवार कक्ष ‘बी’ खोलने का प्रारंभ से ही विरोध करता रहा है। इसके बारे में मान्यता है कि इस तीर्थक्षेत्र की चेतना उसी में समाहित है और वह सदियों से बंद रहा है। अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने इस कक्ष को खोलने या न खोलने का अधिकार भी नई प्रबंध समिति को दे दिया है। नई प्रबंध समिति के गठन के लिए चार सप्ताह का समय दिया गया है। यह समिति राजपरिवार के अधीनस्थ काम करेगी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मंदिर की संपत्ति पर नजर गड़ाए धर्मनिरपेक्ष तंत्र को दिया झटका
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मंदिर एवं मंदिर की संपत्ति पर नजर गड़ाए धर्मनिरपेक्ष तंत्र को भले ही झटका दिया हो, पर हिंदू समाज के सामने लड़ाई अभी लंबी है। इस लड़ाई का सरोकार केवल मंदिरों की संपत्ति से ही नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 26 द्वारा प्रदत्त उस मौलिक अधिकार से भी है, जिसके तहत प्रत्येक धर्म, मत एवं संप्रदाय के लोगों को अपने र्धािमक संस्थानों को बिना किसी हस्तक्षेप के स्वयं संचालित करने का हक है।
केवल हिंदू मंदिरों पर ही सरकारी नियंत्रण है
धर्मनिरपेक्ष भारत की अनेक संवैधानिक विकृतियों में से एक यह भी है कि केवल हिंदू मंदिरों पर ही सरकारी नियंत्रण है। यह नियंत्रण न सिर्फ हिंदू समाज की आर्थिक स्वतंत्रता को बाधित करता है, बल्कि सरकारी प्रभाव में संसाधनों को गैर र्धािमक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी बाध्य करता है। सरकारी नियंत्रण में मंदिरों की संपत्ति, मूर्ति चोरी और जमीनों पर अवैध कब्जों के आंकड़े चौंकाते हैं। दो वर्ष पूर्व मंदिर की संपदाओं के डिजिटलीकरण के बाद तमिलनाडु के एचआरसीई विभाग ने खुलासा किया कि राज्य में करीब 10,000 करोड़ रुपये मूल्य की 25,868 एकड़ भूमि पर अवैध कब्जे हो चुके हैं।
लंबी कानूनी लड़ाई के बाद केवल दो मंदिरों को ही सरकारी नियंत्रण से छुड़ाया जा सका
लंबी कानूनी लड़ाई के बाद केवल दो मंदिरों को ही सरकारी नियंत्रण से छुड़ाया जा सका है। सबरीमला, शनि शिंगणापुर, चार धाम और चिलकुर बालाजी मंदिरों के लिए सरकारी नियंत्रण से मुक्ति संबंधी मामले अभी विचाराधीन हैं। इन फैसलों के बाद अन्य मामलों में हिंदू भावनाओं के सम्मान की आस जगी है, पर सरकारी नियंत्रण में कई मंदिरों के प्रबंधन को कोर्ट में एक-एक कर चुनौती देना असंभव है।
हिंदू भावनाओं के सम्मान के लिए केंद्र कानून में संशोधन कर प्रावधानों की मूर्त आत्मा को पुनर्जीवन दे
हिंदू भावनाओं के सम्मान के लिए अच्छा होगा कि केंद्र संविधान के अनुच्छेद 26 और 27 में संशोधन कर इन प्रावधानों की मूर्त आत्मा को पुनर्जीवन दे। यदि सामाजिक या ढांचागत कारणों से सरकार को मंदिर प्रबंधन में आशंकाएं महसूस होती हैं तो उनके निर्मूलन का प्रावधान भी उसी संशोधन में निरोपित कर या अलग से बिल लाकर हो सकता है। जस्टिस बोबडे का भी मानना है कि यदि प्रबंधन में कोई विवाद आ भी जाए तो उसका निस्तारण कर मंदिर वापस समाज को ही दिए जाने चाहिए।
( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं स्तंभकार हैं )
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