जागरण संपादकीय: परिसीमन की कसौटी, शासन गुणवत्ता और विशिष्ट संस्कृति क्षेत्र भी आधार बनाए जा सकते हैं
परिसीमन का मुद्दा केवल राजनीतिक कारणों से विवाद में है। ऐसी चिंता दूर करने के लिए आम सहमति बनाने के प्रयास होते रहे हैं। इसके लिए संवैधानिक समीक्षा पैनल की स्थापना की जा सकती है। जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व कारकों के बारे में वैकल्पिक विचार पर चिंतन जरूरी है। जनअपेक्षा है कि सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष तथ्य-तर्क के आधार पर ही श्रेष्ठ नतीजे पर पहुंचेंगे।
हृदयनारायण दीक्षित। लोकसभा सीटों के परिसीमन पर बहस जारी है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा है कि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर ही नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे दक्षिण के राज्यों को नुकसान होगा। गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वासन दिया है कि परिसीमन प्रक्रिया से दक्षिणी राज्यों को नुकसान नहीं होगा और सरकार किसी भी राज्य के साथ अन्याय नहीं होने देगी।
उन्होंने सीटों में वृद्धि होने पर उचित हिस्सेदारी का वादा किया है। फिर भी वाक् युद्ध जारी है। परिसीमन संवैधानिक उत्तरदायित्व है। संविधान के अनुच्छेद 82 में उल्लिखित है, ‘प्रत्येक जनगणना के बाद राज्यों को लोकसभा में स्थानों के आवंटन और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन को ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनः समायोजन किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा अवधारित करे।’
संविधान में जनसंख्या को ही सीटों के निर्धारण का मुख्य आधार बताया गया है। इसीलिए प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन का प्रविधान है। परिसीमन का कार्य जनसंख्या परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनः समायोजित करना एवं विभिन्न क्षेत्रों के बीच सीटों का समान वितरण सुनिश्चित करना है। संबंधित कानून के अनुसार परिसीमन कार्य के लिए एक आयोग का गठन किया जाता है।
अब तक चार बार इस आयोग का गठन हो चुका है। 1976 में संशोधन अधिनियम द्वारा सन 2000 तक लोकसभा सीट आवंटन और निर्वाचन क्षेत्र विभाजन को 1971 के स्तर पर स्थिर कर दिया था। लोकसभा की राज्यवार संरचना में परिवर्तन लाने वाला परिसीमन वर्ष 1976 में हुआ था। यह 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया था। फिर 2001 में इसे 2026 तक 25 साल के लिए बढ़ा दिया गया था।
2003 में निर्वाचन क्षेत्र की संख्या में परिवर्तन किए बिना 2001 की जनगणना के आधार पर परिसीमन की कार्रवाई चली थी। कम आबादी वाले राज्यों को जनसंख्या आधारित परिसीमन प्रक्रिया से अलग किया गया। केवल जनसंख्या आधारित परिसीमन पर्याप्त नहीं है। भौगोलिक कारक भी महत्वपूर्ण हैं। देश के कई राज्यों में संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का आकार बहुत बड़ा है।
कोई पूर्णकालिक सांसद भी अपने क्षेत्र का दौरा पूरे साल में भी नहीं कर सकता। परिसीमन का कार्य केवल जनसंख्या के अनुसार सीटों का पुनः संयोजन ही नहीं है। कायदे से यह देखा जाना चाहिए कि क्या लोकसभा की सीटें घटाने या बढ़ाने से संसदीय कार्यवाही की गुणवत्ता बढ़ेगी? क्या इस परिसीमन से देश की विकास दर बढ़ेगी? क्या परिसीमन की कसरत से जनप्रतिनिधि का कार्य सरल होगा?
लोकसभा की सीटें बढ़ा या घटा देने से व्यवस्था में किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। बेशक जनसंख्या ही जनप्रतिनिधित्व का आधार है। यह सब जानते हुए भी जनसंख्या आधारित परिसीमन पर स्टालिन हमलावर हैं, लेकिन उन्होंने भी जनसंख्या आधारित परिसीमन की ही मांग की है। उनके अनुसार 1971 की जनगणना का आंकड़ा ही मार्गदर्शी होना चाहिए।
उनकी सारी चिंताएं राजनीतिक हैं। उनका गुस्सा भी राजनीतिक है और मांगें भी। एक विचार यह भी है कि 1971 की जनगणना के आधार पर सीटों की संख्या स्थिर करने का उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण प्रोत्साहन था। जनसंख्या आधारित परिसीमन संविधान की अपेक्षा है, लेकिन अधिक जनसंख्या हमेशा भार ही नहीं होती। जनशक्ति राष्ट्रीय उत्पादन को बढ़ाती है।
आदर्श प्रतिनिधित्व समय की मांग है। इसके लिए जनसंख्या के साथ ही विकास सूचकांक, अर्थव्यवस्था को गति देने वाले समूह और शासन की गुणवत्ता भी विचारणीय विषय हो सकते हैं। विशिष्ट संस्कृति वाले क्षेत्र भी आधार बनाए जा सकते हैं। जनप्रतिनिधित्व लोकतंत्र का आत्मा है। लगभग 15 से 20 लाख मतदाता लोकसभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुनते हैं।
लोकसभा में सीटों का आवंटन राज्य के मतदाताओं की संख्या के आधार पर होना चाहिए। वंचित वर्ग तमाम अभाव में जीवन यापन करते हैं। संवैधानिक प्रविधानों के अनुसार एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों का आवंटन भी परिसीमन आयोग की जिम्मेदारी है। जनसंख्या में बदलाव का प्रभाव पड़ता है। परिसीमन आयोग संवैधानिक संस्था है। यह निर्वाचन आयोग के साथ काम करता है। बहुत संभव है कि कुछ दलों को आयोग का निर्णय कम अच्छा लगे। बावजूद इसके लोकसभा के लिए सीटों का समायोजन महत्वपूर्ण है।
ऐसे मामलों में राजनीतिक बयानबाजी उचित नहीं होती। यहां इस या उस राज्य में सीटों का घटना-बढ़ना महत्वपूर्ण नहीं है। किसी दल या समूह की चुनाव संभावना भी देखना नहीं है। महत्वपूर्ण बात है राष्ट्रीय एकता और अखंडता, लेकिन यह सब जानते हुए भी उत्तर दक्षिण की अलगाववादी बयानबाजी जारी है। संघीय ढांचे को खतरा बताया जा रहा है। राष्ट्र को नुकसान पहुंचाने वाली बातें की जा रही हैं।
वर्ष 1913 से अमेरिकी हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव्स में सीटों की संख्या 435 तक सीमित रही है। अमेरिका में भी हर जनगणना के बाद परिसीमन होता है। समान अनुपात की विधि से राज्यों के बीच सीटों का समायोजन होता है। वर्ष 2020 की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजन हुआ, लेकिन 37 राज्यों की सीटों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अमेरिकी राज्य भारतीय राज्यों से भिन्न हैं।
अमेरिका राज्यों के समझौते से बना राष्ट्र राज्य है और भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। 720 सदस्यों वाली यूरोपीय संघ संसद में सीटों की संख्या को 27 सदस्य देशों के बीच विभाजित किया गया है। जनसंख्या बढ़ने पर सीटों की संख्या का अनुपात बढ़ता है। डेनमार्क में 4 लाख की औसत आबादी और जर्मनी में 8.6 लाख की औसत आबादी पर जनप्रतिनिधि बनते हैं।
परिसीमन का मुद्दा केवल राजनीतिक कारणों से विवाद में है। ऐसी चिंता दूर करने के लिए आम सहमति बनाने के प्रयास होते रहे हैं। इसके लिए संवैधानिक समीक्षा पैनल की स्थापना की जा सकती है। जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व कारकों के बारे में वैकल्पिक विचार पर चिंतन जरूरी है। जनअपेक्षा है कि सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष तथ्य-तर्क के आधार पर ही श्रेष्ठ नतीजे पर पहुंचेंगे।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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