दिव्य कुमार सोती। मुंबई पर हुए भीषण आतंकी हमले के डेढ़ दशक बाद उसका एक मुख्य षड्यंत्रकारी तहव्वुर हुसैन राणा अंतत: भारत के हाथ लग गया। पाकिस्तानी मूल के कनाडाई नागरिक राणा का हाल में अमेरिका से प्रत्यर्पण संभव हुआ है। यह मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक जीत मानी जा रही है।

राणा के गिरफ्त में आने के बाद कई रहस्यों से पर्दा उठने की उम्मीद जगी है। राणा की गिरफ्तारी पर जारी विज्ञप्ति में राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए ने लश्कर-ए-तोइबा के साथ-साथ हरकत उल जिहाद-ए-इस्लामी को भी इन हमलों का साजिशकर्ता बताया है। पहले इन हमलों को अकेले लश्कर का काम समझा जाता रहा।

राणा का भारत की गिरफ्त में आने का एक ऐतिहासिक पहलू और भी है। कनाडा की नागरिकता पाने से पहले वह पाकिस्तानी फौज की मेडिकल कोर में कैप्टन था। राणा का भाई भी पाकिस्तानी फौज में मनोविज्ञानी है। इस दृष्टिकोण से देखें तो राणा संभवत: पाकिस्तानी फौज से जुड़ा पहला ऐसा व्यक्ति है, जो जम्मू-कश्मीर से बाहर हुए किसी आतंकी हमले के मामले में भारत के हत्थे चढ़ा है।

राणा और मुंबई हमले के मुख्य साजिशकर्ताओं में से एक पाकिस्तानी मूल का अमेरिकी नागरिक दाऊद गिलानी उर्फ डेविड कोलमैन हेडली लश्कर के साथ-साथ अलकायदा के आतंकी इलियास कश्मीरी के लिए भी काम कर रहे थे। इलियास भी राणा की तरह पाकिस्तानी फौज में रह चुका था।

एक भारतीय सैनिक का सिर काटने पर जनरल परवेज मुशर्रफ ने उसे सम्मानित भी किया था। पाकिस्तान में बैठकर मुंबई हमले का संचालन करने वाला मेजर इकबाल भी पाकिस्तानी फौज का ही अफसर है। यह दर्शाता है कि खुद पाकिस्तान फौज न केवल आतंकी पैदा करने की फैक्ट्री है, बल्कि उसमें और लश्कर एवं जैश जैसे आतंकी संगठनों में कोई अंतर नहीं।

यह उस आख्यान को ध्वस्त करता है, जो भारत में अमन की आशा ब्रिगेड और बालीवुड फिल्मों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है कि पाकिस्तान में आतंकी संगठन फौज की भी नहीं सुनते। अब राणा के जरिये भारत को पाकिस्तान प्रायोजित आतंक के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करनी चाहिए।

पाकिस्तान का भारत के विरुद्ध जिहादी आतंकवाद का उपयोग अब परोक्ष युद्ध का मामला नहीं रह जाता। 26/11 हमला पाकिस्तानी फौज द्वारा भारत पर सीधा हमला था, जिसमें पाकिस्तानी फौज के पूर्व और तत्कालीन सैन्य अधिकारियों की संलिप्तता थी। राणा और हेडली दोनों पाकिस्तानी फौज के हसन अब्दाल कैडेट कालेज में साथ ही पढ़े।

उनका संबंध भी संपन्न परिवारों से रहा। हेडली के पिता राजनयिक रहे थे। दोनों का आतंकी बनना आतंकवाद की समस्या के पीछे अशिक्षा और गरीबी को कारण बताने वाले विमर्श की भी पोल खोलता है। राणा के क्रियाकलाप देखें तो वह आव्रजन एजेंसी संचालन के साथ-साथ अमेरिका में हलाल बूचड़खाना भी चलाता था। यह हलाल आर्थिकी और जिहादी आतंकवाद के बीच के संबंध को भी रेखांकित करता है।

मुंबई हमले को लेकर भारत के भीतर से भी आतंकियों को सहायता मिलने का संदेह जताया जाता रहा, परंतु अभी तक इसके कोई साक्ष्य नहीं मिले थे, क्योंकि कोई मुख्य षड्यंत्रकारी पकड़ा नहीं गया था। अजमल कसाब तो एक प्यादा ही था। यह जांच का विषय है कि पाकिस्तानी फौज में काम कर चुका राणा जैसा व्यक्ति मुंबई में आव्रजन एजेंसी चलाने जैसा संवेदनशील उपक्रम कैसे शुरू कर सका?

यह सवाल इसलिए और संदेह पैदा करता है, क्योंकि मुंबई में हमला करने वाले आतंकियों ने हाथ में कलावा बांध रखा था और हमलों की जांच पूरी होने से पहले ही भारत में कथित सेक्युलर नेताओं ने इसके पीछे हिंदू संगठनों का हाथ बताना शुरू कर दिया था। क्या यह पहले से तैयार पटकथा के अनुसार हुआ था? अगर कसाब जिंदा न पकड़ा जाता तो मानकर चलिए कि इस पूरे आतंकी हमले का आरोप हिंदू संगठनों पर लगा दिया जाता।

मुंबई हमले में अमेरिकी एजेंसियों की भूमिका भी कम संदिग्ध नहीं थी। राणा का साथी हेडली अमेरिका की एंटी-नारकोटिक्स एजेंसी डीईए का मुखबिर रहा था। 9/11 हमले के बाद अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने एक बार फिर हेडली की मदद पाकिस्तानी आतंकी संगठनों में खुफिया घुसपैठ के लिए चाही, परंतु वह उन्हीं आतंकी संगठनों के लिए काम करता रहा।

उसने पाकिस्तान में आतंकी कैंपों के दौरे किए और आतंकी ट्रेनिंग भी ली। अब इसके पर्याप्त साक्ष्य सामने आ चुके हैं कि एक समय पर अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को हेडली की इन आतंकी गतिविधियों की भनक लग चुकी थी और उसके फोन-ईमेल को भी उन्होंने निगरानी पर रखा था। यह सब जानते हुए भी अमेरिका ने इसकी सूचना भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को नहीं दी और हेडली भारत के दौरे करता रहा।

26/11 हमला होने पर भी अमेरिकी सरकार ने चुप्पी साधे रखी। हेडली को इस हद तक संरक्षण प्राप्त था कि उसकी पत्नी ने भी आतंकी गतिविधियों में उसकी संलिप्तता की सूचना अमेरिकी एजेंसियों को दी, फिर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। जब राणा, हेडली और लश्कर ने डेनमार्क में आतंकी हमलों की साजिश रची, तब उन्हें हमले से पहले ही अमेरिकी एजेंसियों ने धर दबोचा। ऐसा मुंबई हमले से पहले भी किया जा सकता था, परंतु संभवतः अश्वेत भारतीयों की जिंदगियों की कीमत अमेरिकी सरकार की नजर में उतनी नहीं थी, जितनी डेनमार्क के नागरिकों की।

अमेरिका द्वारा सब कुछ जानते हुए भी मुंबई के आरोपितों को लेकर उसकी हीलाहवाली सालने वाली थी। अब राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछली सरकारों की नीति को पलटते हुए राणा को सौंपकर भारत की नाराजगी दूर करने की कोशिश की है, पर इस मामले में न्याय तब तक पूरा नहीं होगा जब तक हेडली को भी अमेरिका भारत के हवाले नहीं कर देता।

चूंकि राणा पर यूरोप में भी आतंकी हमलों की साजिश रचने का आरोप रहा है, इसलिए पूरे विश्व की निगाहें इस मामले की कानूनी कार्रवाई पर होंगी। यह भारतीय न्याय व्यवस्था की सक्षमता की भी परीक्षा है। सरकार को ध्यान देना होगा कि राणा भारत में दंड प्रक्रिया कानूनों में आए बदलावों से उपजी किसी पेचीदगी का लाभ न उठा पाए।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)