कहते हैं- जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। यही बात मनुष्य जीवन के संदर्भ में भी लागू होती है। व्यक्ति के विचार, उसकी दृष्टि कई बार उसके जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करती हैं। यदि जीवन में हम सकारात्मक सोच रखें, तो सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है। विपरीत परिस्थितियों को भी हम अनुकूल बना सकते हैं, बशर्ते हमारी दृष्टि नकारात्मक न हो। नकारात्मक सोच मनुष्य को मन व शरीर से निर्बल बना देती है। वहीं सकारात्मक सोच के बगैर व्यक्ति साम‌र्थ्यहीन हो जाता है। परम-पिता परमेश्वर ने मनुष्य को असीम शक्तियां प्रदान की हैं। अपने अंदर के ईश्वरीय तत्व को जाग्रत कर वह बड़े से बड़ा कार्य खेल-खेल में कर सकता है। सकारात्मक दृष्टि मनुष्य में अनंत ऊर्जा का समावेश कर उसे सद्प्रेरणा तो दे ही सकती है, साथ ही यह साधना की अनंत यात्रा में भी सहयोगी बनती है। सकारात्मक दृष्टि से व्यक्ति के अंदर संघर्ष करने की शक्ति पैदा होती है जो मनुष्य को हार न मानने और इस जीवन क्षेत्र में लगातार जूझने की प्रेरणा देती है। सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ-साथ पुरुषार्थ और आध्यात्मिक विचारों का होना भी नितांत आवश्यक है। सकारात्मक दृष्टिकोण के सहारे व्यक्ति निर्भीक, निरहंकार और निस्वार्थ होकर राष्ट्र साधना में सदैव तत्पर रह सकता है। सभी रुकावटों और विपरीत परिस्थितियों के साथ तमाम विघ्न-बाधाओें को पार करने के लिए हममें उत्साह और ऊर्जा का लगातार बने रहना भी आवश्यक है।

हमारी दृष्टि तभी व्यापक हो सकती है, जब हम समाज के हर एक वर्ग को एक साथ जोड़ पाएंगे और साथ रख पाएंगे तभी समाज के हर घटक को आध्यात्मिकता में पिरोकर वैचारिक और सामाजिक क्रांति घटित कर सकेंगे। इस व्यापक व सकारात्मक दृष्टि को धारण कर भारतीय संस्कृति के सफल संवाहक महर्षि वशिष्ठ और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से लेकर आचार्य चाणक्य, समर्थगुरु रामदास, डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर आदि अनेक महापुरुषों ने समाज को नई दिशा दी। इसी तरह हम सबको अपनी दृष्टि को स्वयं तक सीमित नहीं रखना चाहिए। सकारात्मक दृष्टि को व्यापक बनाकर ही हम समुचित रूप से आत्म-कल्याण, राष्ट्रकल्याण और विश्व कल्याण कर सकते हैं।

[लाहिड़ी गुरुजी]

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