जिहाद के खिलाफ छह कदम
स्वप्रेरित जिहादियों-तशफीन मलिक और उसके पति सैयद रिजवान फारूक ने कैलिफोर्निया में गत २ दिसंबर को चौदह अमेरिकियों की हत्या कर दी। इस पाकिस्तानी दंपती ने इस्लामिक स्टेट (आइएस) के समर्थन में ये हमले किए।
स्वप्रेरित जिहादियों-तशफीन मलिक और उसके पति सैयद रिजवान फारूक ने कैलिफोर्निया में गत २ दिसंबर को चौदह अमेरिकियों की हत्या कर दी। इस पाकिस्तानी दंपती ने इस्लामिक स्टेट (आइएस) के समर्थन में ये हमले किए। ९ दिसंबर को अमेरिकी फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (एफबीआइ) ने खुलासा किया कि इस दंपती ने एक साल पहले जिहाद और शहादत की चर्चा की थी। मीडिया की कुछ खबरों में कहा गया है कि जब आइएसआइएस का जन्म भी नहीं हुआ था तब २०१२ में ही वे कट्टरपंथी बन गए थे। यह भी जाहिर है कि मुंबई के चार युवक इराक गए थे और आइएसआइएस में शामिल हो गए थे। उन्होंने भी पिछले साल ३० जून को आइएसआइएस सरगना अबू बकर अल-बगदादी के अपने को सभी मुसलमानों का खलीफा घोषित करने से कुछ महीने पहले ही संगठन छोड़ दिया था। यह सच है कि पाकिस्तान में देवबंदी मदरसे जिहाद की तरफ धकेलने के लिए मुस्लिम युवाओं को कट्टरपंथी बनाते हैं, लेकिन भारत के उसी तरह के देवबंदी मदरसे ऐसा नहीं करते। इसकी वजह यह नहीं है कि कुछ पुस्तकें जिहाद की शिक्षा नहीं देतीं। यह बात देखी जा सकती है कि इस्लाम छोड़ देने वाले लोगों, कथित ईश निंदकों और शिया मुसलमानों (जिन्हें कुछ इस्लामी समूह काफिर मानते हैं) के संबंध में शरिया के धार्मिक सिद्धांतों पर आइएसआइएस और भारत भर में बरेलवी विद्वानों में कोई मतभिन्नता नहीं है। अल-कायदा और आइएसआइएस के जिहादी संदेश की तरफ भारतीय मुसलमान आकर्षित नहीं हुए हैं, उसकी वजह यह है कि भारत का जीवंत लोकतंत्र, सहिष्णुता और सहअस्तित्व मुसलमानों समेत सभी भारतीयों के जीवन पर सकारात्मक असर डालता है।
बरेली में ९ दिसंबर को मुफ्ती मोहम्मद सलीम नूरी और हजरत सुभान रजा खान के नेतृत्व में बरेलवी के मौलवियों ने आइएसआइएस, तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ यह कहते हुए फतवा जारी किया कि ये च्मुसलमान नहींज् हैं। मुफ्ती नूरी ने कहा कि ६ दिसंबर से जब सालाना उर्स शुरू हुए, दरगाह आला हजरत के सदस्य आतंकवाद के खिलाफ एक हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं। करीब १५ लाख मुसलमानों ने अपना विरोध दर्ज कराया है। इस काम में शामिल दुनिया भर के करीब ७० हजार मौलवियों ने यह फतवा जारी किया है। इन फतवों का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन वे अहम नहीं हैं।
इस तरह के फतवों के संदेश मुस्लिम युवाओं को आकर्षित नहीं करते, क्योंकि ये फतवे आइएसआइएस और अल-कायदा के खिलाफ तो हैं लेकिन उन इस्लामी धर्मसिद्धांतों के खिलाफ नहीं हैं जो मदरसों, मस्जिदों और जलसों (धर्म सम्मेलनों) में मुसलमानों को पढ़ाए जाते हैं। इसलिए अल-कायदा, तालिबान और आइएसआइएस के खिलाफ फतवा जारी करने की जगह बरेलवी और देवबंदी विद्वानों को एक मंच पर आने और सभी तरह के जिहादियों के खिलाफ मेरे छह सूत्री फतवे को समर्थन देने की जरूरत है। मेरा छह सूत्री फतवा इन बातों की घोषणा करता है। पहला, हम सभी शियाओं को मुसलमान मानते हैं। दूसरा, हम सभी अहमदियों को मुसलमान मानते हैं। तीसरा, पैगंबर मुहम्मद साहब एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे और इसलिए गैरमुसलमानों, मुस्लिम पत्रकारों और शिक्षाविदों को उनके संदेशों की आलोचनात्मक व्याख्या करने का अधिकार है। चौथा, धर्मत्याग पर शरिया आधुनिक समय के लिए औचित्यपूर्ण नहीं है और इस्लाम छोड़ने के इच्छुक मुसलमान की हत्या नहीं की जाएगी। पांचवां, किसी मुस्लिम देश के किसी भी गैर मुस्लिम नागरिक को शासन प्रमुख बनने की अनुमति दी जाएगी। यह महत्वपूर्ण बिंदु है, क्योंकि पाकिस्तान, सऊदी अरब, मालदीव जैसे कई इस्लामी देश शासन प्रमुख बनने के लिए अपने गैरमुस्लिम नागरिकों को अनुमति नहीं देते। पाकिस्तान का संविधान देश का राष्ट्रपति बनने से सभी गैरमुस्लिम पाकिस्तानियों को स्पष्ट रूप से वंचित करता है। छठा, इस्लामी शरिया के धर्मसिद्धांतों के अनुरूप ही किसी मुस्लिम महिला को शासन प्रमुख बनने की अनुमति होगी।
इस्लामी शरिया में ये छह प्रमुख बातें हैं जो जिहादियों को फलने-फूलने देती हैं। इन छह बिंदुओं से न निपटने वाले फतवे का वस्तुत: कोई मतलब नहीं है। हम जानते हैं कि बरेलवी मौलवी लगभग उन्हीं धर्मसिद्धांतों की शिक्षा देते हैं जिनके लिए जिहादियों ने पेरिस में शार्ली अब्दो पत्रिका पर हमला किया था या पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की उनकी बरेलवी सुरक्षा गार्ड मुमताज कादरी ने हत्या कर दी थी। यह लग सकता है कि आइएसआइएस नया संगठन है, लेकिन तथ्य इससे अलग हैं। इसी तरह के धर्मसिद्धांतों के नाम पर लाहौर की गलियों ने १९२१ ओर १९३१ के दशकों में ऐसी ही जिहादी गतिविधियां भोगी हैं जैसी इस वक्त पेरिस की गलियों में दिख रही हैं। गाजी अब्दुर रशीद और गाजी इलमुद्दीन उस युग के स्वत: जिहादी थे। यह उस वक्त का किस्सा है जब भारत सरकार ने अल्लामा इकबाल के लेखन कार्यों को विश्वविद्यालयों से हटा दिया था, क्योंकि उनकी लेखनी जिहाद की भावना फैलाती थी।
इस महीने की शुरुआत में मुझे अफगान सरकार ने काबुल में एक सम्मेलन में इस विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया था कि धार्मिक अतिवाद का प्रतिकार कैसे किया जाए। २ दिसंबर को हुए इस सम्मेलन में मैंने इस बात पर जोर दिया कि आधुनिक समय में कोई मुस्लिम देश या समाज तब तक प्रगति की उम्मीद नहीं कर सकता जब तक उनकी आधी आबादी-महिलाएं पीछे बनी रहती हैं। आधुनिक सभ्यता के दौर में जीवन के सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती भूमिका खास महत्व रखती है। सभ्यता की इस प्रक्रिया में हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हर दुकान, हर मदरसे और हर कॉलेज के कर्मचारियों में कम से कम ५० प्रतिशत महिलाएं हों। यह एक दिन में हासिल नहीं हो सकता, लेकिन यह हमारा लक्ष्य होना चाहिए। मुस्लिम नेता अपने पिछड़ेपन के लिए भारत सरकार को दोष देते रहते हैं, लेकिन जब अपनी महिलाओं का मसला आता है तो उन्हें पढ़ने, व्यापार करने देने, राजनीतिक काम करने से रोकते हैं। मदरसों पर मुस्लिम पुरुषों ने एकाधिकार कर रखा है। यह बहुत ही दुखद है कि सभी मस्जिदें मुस्लिम पुरुषों की व्यक्तिगत जागीर हैं। जब तक महिलाएं मस्जिदों, मदरसों और जलसों पर पूरा नियंत्रण नहीं करेंगी, सभी देशों में मुस्लिम समुदाय पिछड़े बने रहेंगे। अगर भारतीय मुसलमान प्रगति चाहते हैं तो यह जरूरी है कि सभी लड़कियों की पहली से बारहवीं क्लास तक गणित, अर्थशास्त्र और विज्ञान की पढ़ाई हो। अगर आप एलकेजी से कुरान पढ़ा सकते हैं तो पहली क्लास से गणित क्यों नहीं पढ़ा सकते?
[ लेखक तुफैल अहमद, वाशिंगटन में मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट से जुड़े हैं ]














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