विवेक देवराय/आदित्य सिन्हा : इन दिनों एक देश-एक चुनाव का मुद्दा चर्चा में है। केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में इस पर मंथन के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दी है। एक साथ चुनाव से आशय लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने से है। चुनाव प्रक्रिया को सुसंगत बनाना भी इसका उद्देश्य है। इसका अर्थ यह नहीं कि पूरे देश में सभी लोकसभा और विधानसभा सीटों के लिए एक ही दिन में चुनाव करा लिए जाएं। इसके बजाय चुनाव प्रक्रिया विभिन्न चरणों में संपादित कराई जा सकती है ताकि निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाता एक ही दिन में लोकसभा और विधानसभा के लिए मतदान कर सकें।

स्वतंत्रता के बाद देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ संपन्न होते रहे। यह क्रम 1967 में टूट गया। उसके बाद से इसकी फिर से संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। इसी सिलसिले में विधि आयोग की 1999 में आई ‘चुनाव कानूनों पर सुधार’ रपट उल्लेखनीय है। उसके अनुसार एक साथ चुनावों का क्रम टूटने का मुख्य कारण अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग और विधानसभाओं का भंग होना रहा। हालांकि अब 356 के उपयोग के आसार बहुत सीमित हो गए हैं। इसलिए अलग-अलग कराए जाने के बजाय लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव प्रत्येक पांच वर्ष में एक बार कराया जाना आदर्श होगा।

कई समितियों ने एक साथ चुनाव के विचार का समर्थन किया है। कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय मामलों से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने 17 दिसंबर, 2015 को राज्यसभा में प्रस्तुत एक रिपोर्ट में सुझाया था कि सभी दलों को एक साथ चुनाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। विशेष रूप से आर्थिक विकास की गति को देखते हुए यह बहुत आवश्यक है, क्योंकि बार-बार चुनाव के चलते लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता के कारण कई परियोजनाओं का काम अटक जाता है। नीति आयोग का पत्र भी यही कहता है। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह सुझाव दिया है कि जिन विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के छह महीने बाद होने हैं, उनके चुनाव भी लोकसभा के साथ ही करा लिए जाएं और भले ही परिणाम छह माह बाद उनके कार्यकाल समाप्ति पर घोषित किए जाएं। वहीं, 21वें विधि आयोग की 2018 में आई रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव वाले विचार के पक्ष में मत व्यक्त किया गया था।

क्या एक साथ चुनाव कराना वाकई लाभदायक है? समवेत स्वर में इसका उत्तर ‘हां’ में ही निकलेगा। कम से कम चार पहलू इसके फायदों की पुष्टि करते हैं। सबसे पहला तो यह कि बार-बार चुनाव के कारण लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता के चलते कई विकास परियोजनाएं गतिरोध का शिकार हो जाती हैं और कल्याणकारी कार्यक्रम भी ठहर जाते हैं। एक साथ चुनाव होने से विकास गतिविधियों पर आचार संहिता के प्रभाव को न्यून किया जा सकेगा। दूसरा लाभ चुनाव प्रक्रिया पर होने वाले खर्च की लागत घटने के रूप में मिलेगा।

विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा और विधानसभा चुनावों का खर्च लगभग बराबर होता है। लोकसभा चुनाव का व्यय जहां भारत सरकार वहन करती है, वहीं विधानसभा चुनावों का खर्च संबंधित राज्य की सरकार को उठाना पड़ता है। जबकि एक साथ चुनाव से केंद्र और राज्य आधा-आधा खर्च उठाकर ही चुनाव करा सकते हैं। इससे पार्टियों और प्रत्याशियों का खर्च भी व्यापक स्तर पर घटेगा।

तीसरा लाभ चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी कठिनाइयों के हल में मिलेगा। चुनाव कराना लाजिस्टिक्स के लिहाज से बड़ी चुनौती है, जिसके लिए भारी मात्रा में संसाधन और समन्वय की आवश्यकता होती है। चुनाव आयोग को वोटिंग मशीन से लेकर मतदानकर्मियों और सुरक्षाकर्मियों की व्यवस्था करनी पड़ती है। मतदानकर्मियों में बड़ी संख्या शिक्षकों की होती है। उन्हें यह दायित्व मिलने से शिक्षण व्यवस्था प्रभावित होती है। अन्य विभागों का कामकाज भी प्रभावित होता है। कर प्रशासन से लेकर सुरक्षा बलों जैसी तमाम इकाइयों की सक्रियता भी बढ़ानी होती है। व्यापक स्तर पर संसाधन-केंद्रित इस प्रक्रिया को लोकसभा और विधानसभा चुनावों में दोहराना पड़ता है। इन तीन फायदों से इतर एक साथ चुनाव का सबसे बड़ा लाभ मतदान में बढ़ोतरी के रूप में दिख सकता है।

स्पेन में हुए दो अध्ययनों में यह सामने आया है कि एक साथ चुनाव और मतदाताओं की सक्रियता-सहभागिता में सकारात्मक अंतर्निहित संबंध है। भारत में भी इसके प्रमाण मौजूद हैं। अभी आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और तेलंगाना में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम है। वर्ष 2019 में हुए चुनावों में आंध्र में 80.38 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि अरुणाचल में 82.11 प्रतिशत, ओडिशा में 73.29 प्रतिशत, सिक्किम में 81.41 प्रतिशत और तेलंगाना में 62.44 प्रतिशत। जबकि मतदान का राष्ट्रीय औसत 67.4 प्रतिशत था। इस प्रकार देखें तो तेलंगाना को छोड़कर उन सभी राज्यों में मतदान का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से अधिक रहा, जहां लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए गए थे।

एक साथ चुनाव के विरोधियों की दलील है कि ऐसा होने से राष्ट्रीय मुद्दे अधिक केंद्र में होंगे, जिसका फायदा किसी एक दल को लोकसभा और विधानसभा यानी दोनों चुनावों में मिल सकता है। इस विचार को मूर्त रूप देने की राह में अन्य कुछ चुनौतियां भी हैं। उनके बावजूद नीति आयोग और विधि आयोग का मानना है कि यह विचार अमल में लाए जाने के लिहाज से पूरी तरह व्यावहारिक है। कुछ लोगों को यह आशंका भी सता रही है कि एक साथ चुनाव संबंधी संवैधानिक प्रविधान संघीय ढांचे को कमजोर कर राज्यों की स्वायत्तता को घटाएगा। ये चिंताएं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही व्यक्त की जा रही हैं।

भारत में मतदाताओं की प्राथमिकताएं कई अलग-अलग पहलुओं से निर्धारित होती हैं। उनमें निवर्तमान सरकार के प्रदर्शन से लेकर स्थानीय मुद्दों की भूमिका होती है। इसलिए लगता नहीं कि इससे मतदाता किसी दुविधा का शिकार होगा। दिल्ली और ओडिशा के चुनाव परिणाम प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि लोकसभा और विधानसभा में मतदाताओं की पसंद कैसे बदल जाती है और वे राष्ट्रीय एवं राज्य से जुड़े मुद्दों का नीर-क्षीर ढंग से निर्धारण करने में सक्षम हैं। इसलिए एक साथ चुनाव जैसी किसी संभावित पहल पर समग्रता में विचार किए बिना उसे खारिज करना बुद्धिमानी नहीं है।

(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी (अनुसंधान) हैं। ये लेखकों के निजी विचार हैं)