जागरण संपादकीय: सुधार की राह तकते आश्रय गृह, अमानवीय घटनाओं का सिलसिला कायम
भारतीय संविधान में स्पष्ट प्रविधान है कि सरकार अपने नागरिकों को आश्रय उपलब्ध कराए ताकि देश के नागरिक गरिमापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें। इसके लिए सरकार का सामाजिक कल्याण मंत्रालय अनुदान भी उपलब्ध कराता है लेकिन कई बार इसके संचालकों की गिद्धदृष्टि इन आश्रय गृहों को बदहाल कर देती है जिस कारण इन गृहों में रहने वाले लोग उपेक्षा अव्यवस्था और बीमारियों का दंश झेलने को मजबूर होते हैं।
डा. विशेष गुप्ता। दिल्ली के रोहिणी इलाके में स्थित आशा किरण नामक आश्रय गृह में पिछले दिनों 14 लोगों की मौत हो गई। इनमें आठ महिलाएं और पांच पुरुष थे। इस गृह में कुछ मृतक पांच साल तथा कुछ विगत दो दशक से रह रहे थे। यह आश्रय गृह दिल्ली सरकार के सामाजिक विभाग द्वारा मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के लिए संचालित होता है। इसमें कुल रहने की क्षमता 250 लोगों की है, परंतु 980 लोग रह रहे थे। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रहीं रेखा शर्मा ने बताया कि इस गृह में आश्रय लेने वाले लोग अनेक बिना उचित भोजन एवं पानी के रह रहे थे। हालांकि दिल्ली प्रशासन ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं, परंतु ऐसे मामलों में अतीत की जांच बताती है कि उनका परिणाम कुछ सुखद नहीं रहता। यही वजह है कि इस प्रकार के आश्रय गृहों की लगातार अनदेखी हो रही है। इससे इन गृहों में ऐसी अमानवीय घटनाओं का सिलसिला कायम है।
कहना न होगा कि यह केवल एक आश्रय गृह की दारुण कथा है। दिल्ली में ऐसे करीब 200 गृह संचालित हैं, जो बेघर परिवारों, असहाय स्त्री-पुरुषों तथा नशे के शिकार लोगों के लिए आरक्षित हैं। देश में आश्रय गृहों की संख्या 2,500 के आसपास हैं। इनमें लगभग 1,500 गृह सरकारी स्तर पर स्वीकृत हैं। शेष सामाजिक, धार्मिक एवं चैरिटेबल संस्थाओं द्वारा संचालित हैं। हैरत की बात है कि इन आश्रय गृहों में लाखों लोग आवासित तो हैं, परंतु जिन उद्देश्यों को लेकर इन गृहों की स्थापना की गई थी, उन पर अधिकांश खरे नहीं उतर पा रहे हैं। सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों के बाद भी हजारों अनाथ और बेसहारा लोग आज भी सड़कों अथवा रेलवे स्टेशन के आसपास घूमते दिखाई देते है, जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
इन आश्रय गृहों की स्थापना इसलिए की गई थी, ताकि बेघर हुए परिवारों, परित्यक्त महिलाओं, पुरुषों, अनाथ शिशुओं एवं किशोरों तथा वृद्धजनों को आपात स्थिति में वहां रहने के लिए एक अस्थायी घर और जरूरत का सामान तथा एक सुरक्षित एवं स्वच्छ परिवेश उपलब्ध कराया जा सके। देश में शिशु से लेकर वृद्धजनों तक उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग प्रकार के आश्रय गृह हैं। इनमें अनाथ अथवा सड़क एवं झाड़ियों में फेंके गए नवजात शिशुओं के लिए शिशु सदन, अनाथ एवं बेसहारा अथवा घरों से पलायन किए हुए दस साल से अधिक उम्र के किशोर अथवा किशोरियों के लिए किशोर एवं किशोरी गृह, बेसहारा अथवा पारिवारिक हिंसा से प्रभावित महिलाओं के लिए नारी निकेतन तथा वृद्धजनों के लिए वरिष्ठ नागरिक गृह इत्यादि प्रमुख हैं। इसके अलावा देश के प्रचलित कानूनों का उल्लघंन करने वाले किशोरों के लिए किशोर संप्रेक्षण गृह हैं।
इनके अतिरिक्त मंदबुद्धि अथवा दिव्यांगता से जुड़े कुछ आश्रय गृह भी सरकारी अनुदान से संचालित किए जाते हैं। शेष काफी संख्या में महिला एवं वृद्धजनों से जुड़े आश्रय गृह ट्रस्ट एवं चैरिटेबल संस्थाओं द्वारा भी संचालित किए जा रहे हैं। भारतीय संविधान में स्पष्ट प्रविधान है कि सरकार अपने नागरिकों को आश्रय उपलब्ध कराए, ताकि देश के नागरिक गरिमापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें। इसके लिए सरकार का सामाजिक कल्याण मंत्रालय अनुदान भी उपलब्ध कराता है, लेकिन कई बार इसके संचालकों की गिद्धदृष्टि इन आश्रय गृहों को बदहाल कर देती है, जिस कारण इन गृहों में रहने वाले लोग उपेक्षा, अव्यवस्था और बीमारियों का दंश झेलने को मजबूर होते हैं। इससे इनमें एक अच्छे नागरिक बनने की संकल्पना कमजोर हो जाती है। इससे सरकार एवं समाज की साख को चोट पहुंच रही है। समाज के विखंडन ने भी इसमें अपनी खास भूमिका अदा की है। किशोर-किशोरियों, पारिवारिक हिंसा से ग्रस्त महिलाओं एवं सामाजिक संबधों में शक के दायरे का विस्तार तथा अपचारी बच्चों की संख्या में लगातार वृद्धि ने इन गृहों की सीमित संख्या को ध्वस्त कर दिया है। लिहाजा ये सभी गृह अतिरिक्त बोझ की मार झेल रहे हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि इनमें से अधिकांश गृहों का आंतरिक ढांचा चरमरा गया है। कहीं-कहीं तो किशोर-किशोरियों के ये गृह उनके पलायन करने के साथ-साथ यौन व्यभिचार के केंद्र तक बनते देखे गए हैं।
राम का सद्चरित्र, कृष्ण की दूरदर्शिता, सीता के त्याग, रानी लक्ष्मीबाई की वीरता, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना, स्वामी विवेकानंद का पांडित्य एवं श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति जैसे गुण अब भारतीय परिवारों से दूर हो चले हैं। परिवार, पारिवारिक मूल्य, नैतिकता एवं उनकी उपादेयता पर कुतर्क हावी हैं। इससे रिश्तों की टूटन एक स्वाभाविक प्रक्रिया हो चली है। सरकार के साथ समाज की यह अपेक्षा रही है कि समाज के सभी अंग आपसी प्रेम और सद्भाव के साथ समाज में एक अच्छे नागरिक की भूमिका में रहेंगे, मगर सदैव ऐसा नहीं हो पाता।
कई बार समाज में बिखरते और टूटते परिवार और सामाजिक परिवर्तन की तेज आंधी पारिवारिक रिश्तों को तो तोड़ती है, साथ में परिवार से जुड़े बच्चों, किशोर-किशोरियों, स्त्री-पुरुषों तक को पलायन को मजबूर कर देती है। ऐसे में अगर आश्रय गृह न हों तो समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक व्याधियों का प्रवाह बढ़ेगा। निश्चित ही ऐसे लोगों को तमाम विषम व्याधियों से बचाने के लिए ये आश्रय गृह इस समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं हैं, लेकिन फिर भी इन आश्रय गृहों के अंदरूनी ढांचे को संतुलित बनाने के लिए जरूरी है कि केंद्र और राज्यों की सरकारें मिलकर आवश्यक कदम उठाएं। तभी इन गृहों में रहने वाले लक्षित समूहों को एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिलेगा। ऐसा करके ही इन गृहों में रहने वालों को मुख्यधारा में लाया जा सकेगा।
(लेखक समाजशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर एवं उप्र बाल अधिकार संरक्षण आयोग के निवर्तमान अध्यक्ष हैं)
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