हास्य-व्यंग्य : साहित्य के बाजार में नया वायरस, लेखन से सरोकार की तरह यह भी हो जाएगा गायब
‘नहीं नहीं बिल्कुल नहीं। मैं तुम्हारी वायरस वाली चिंता समझता हूं। जानकर तुमको निराशा होगी कि इसकी मारक-क्षमता पहले जैसी नहीं रही। बिल्कुल माडर्न वैरिएंट है। बाजार में नया है। कुछ दिन बीमार करता है फिर ‘हफ्ता’ लेकर चला जाता है।
संतोष त्रिवेदी : बिस्तर में जाने की तैयारी में था कि मेरे वाट्सएप पर दन्न से संदेश आया। आशंका तो मुझे पहले से ही थी, पर उसे पढ़ने के बाद पुष्टि भी हो गई। मेरे शरीर के अंदर खतरनाक वायरस मिला था। यह खबर दूसरी लहर में आई होती तो प्राण वैसे ही सूख जाते। वायरस को अतिरिक्त मेहनत न करनी पड़ती। बहरहाल वायरस तो वायरस है, डर लगता ही है।
संदेश पढ़कर अंदर से तो मैं डर गया, पर प्रकट रूप से यही मान लिया कि कई बार रपट गलत भी हो जाती है। आदमी उसी बात को ज्यादा मानता है, जो उसके लिए मुफीद होती है। इस लिहाज से भी मैं एक आदमी ठहरा। मैंने इस वायरस के बारे में निजी तौर पर किसी को जानकारी नहीं दी थी, पर मेरे शुभचिंतक मुझसे भी चतुर निकले। पता नहीं कहां से उन्हें सुराग मिल गया और इसकी चर्चा मेरे जगने से पहले इंटरनेट मीडिया में वायरल हो गई। इसका पता मुझे तभी चला जब सुबह-मित्र अजातशत्रु जी का फोन घनघना उठा।
‘अजी, क्या हुआ? तुम तो बड़ा परहेज करते हो। किसान, जवान, पहलवान तुम्हारे लिए महज तुकबंदी हैं। तुम काम से काम रखने वाले मनई हो। यह वायरस तुम्हारे अंदर कैसे प्रविष्ट हो गया? लापरवाह तो तुम शुरू से ही हो, बीमार भी हो गए?’ वह धाराप्रवाह बोलते गए। जैसे ही उन्होंने सांस ली, मैंने दखल देना जरूरी समझा। अब तक मुझे तनिक होश आ चुका था। मैंने मित्र पर साहित्यिक-हमला बोल दिया, ‘देखो, मैं तुम्हारी तरह अजातशत्रु नहीं हूं। तुम संतुलन साधने में माहिर हो। इंटरनेट मीडिया हो या साहित्य, सबसे मिलकर चलते हो। इसलिए मिट्टी में नहीं मिल सकते। अपना क्या है! दूसरों की जितनी फैन-फालोइंग होती है, उससे ज्यादा मेरी दुश्मन-फालोइंग है। वरिष्ठ मुझे ठीक से देखते तक नहीं कि कहीं उन्हें मुझसे प्यार न हो जाए। समकालीन इस डर से मुझे पढ़ते तक नहीं कि कहीं उनका लेखन बंद न हो जाए। और कनिष्ठों को क्या कहें, वे सिर्फ लिखना चाहते हैं, किसी को पढ़ना नहीं…।’
मेरी बात बीच में ही काटकर अजातशत्रु जी बोले, ‘भई मैं तो तुम्हारी बीमारी और वायरस के बारे में चिंतित था। अब पुष्टि हो गई कि वाकई खतरनाक वायरस घुस गया है तुम्हारे शरीर में और दिमाग में भी। पता नहीं कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो! मैं वायरस की पूछता हूं तो तुम साहित्य में घुस जाते हो। जब कविता लिखनी होती है तो कहानी लिखने लगते हो। पूरे इंटरनेट मीडिया में तुम्हारे लिए दुआएं मांगी जा रही हैं। तुम्हारे लेखन से ज्यादा तुम्हारे वायरस ने तुम्हें हिट कर दिया है। मुझे इसकी चिंता है।’ कहकर लंबी सांस ली।
‘नहीं, नहीं बिल्कुल नहीं। मैं तुम्हारी वायरस वाली चिंता समझता हूं। जानकर तुमको निराशा होगी कि इसकी मारक-क्षमता पहले जैसी नहीं रही। बिल्कुल माडर्न वैरिएंट है। बाजार में नया है। कुछ दिन बीमार करता है, फिर ‘हफ्ता’ लेकर चला जाता है। इसकी खासियत है कि यह अपडेटेड है। और तुम तो जानते ही हो, मैं कितना अपडेटेड आदमी हूं। गैजेट हो, गाड़ी हो, दोस्त हों या सरकार, मैं हमेशा नए माडल पसंद करता हूं। पुरानी चीजों का मोह नहीं करता। उन्हें अफोर्ड करना महंगा होता है और कुछ काम भी नहीं आतीं। भले वायरस ने नए वैरिएंट के साथ मुझे धर लिया हो, लेकिन इसे नहीं पता कि किससे पाला पड़ा है। जिस तरह धीरे-धीरे मेरे लेखन से सरोकार गायब हुए हैं, यह नामुराद वायरस भी दफा हो जाएगा। अंत सबका होता है, इसका भी होगा। बहरहाल तुमने जो मेरी चिंता की, उसके लिए हमेशा आभारी रहूंगा।’ मैंने अपनी तरफ से बीज-वक्तव्य दिया।
मित्र को अभी भी संतोष नहीं हुआ। बूस्टर-डोज देने लगे, ‘देखो, तुम जैसे भी हो, बने रहो। तुम्हारा बचे रहना साहित्य और मेरे, दोनों के लिए जरूरी है। तुम्हारे लेखन की तुलनात्मकता से ही मेरी प्रतिष्ठा अभी तक बची हुई है। अब फोन रखता हूं। अगले साहित्योत्सव की तैयारियां भी करनी हैं।’ फोन तो कट गया, पर जाते-जाते मित्र ने मेरे अंदर के वायरस को और सक्रिय कर दिया।














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