राजीव सचान। यह कोई नई बात नहीं कि अब संसद से पारित प्रत्येक महत्वपूर्ण कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाने लगी है। किसी को इस पर हैरानी नहीं कि वक्फ संशोधन विधेयक के कानून का रूप लेने के पहले ही उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की घोषणा होने लगी थी। जैसे ही संसद से पारित इस विधेयक ने कानून का रूप लिया, उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर कर दी गईं।

आने वाले दिनों में इन याचिकाओं की संख्या दर्जनों में पहुंच जाए तो बड़ी बात नहीं, क्योंकि मुस्लिम संगठनों के साथ विपक्षी दलों में यह जताने की होड़ मची है कि उन्हें नया वक्फ कानून रास नहीं आ रहा है। नए वक्फ कानून की संवैधानिकता की सुप्रीम कोर्ट में परख में कोई समस्या नहीं। सुप्रीम कोर्ट में फैसला जो भी हो, यह कहना कठिन है कि यह संशोधित कानून पंथनिरपेक्षता यानी सेक्युलरिज्म की कसौटी पर खरा उतरता है, क्योंकि किसी भी वास्तविक पंथनिरपेक्ष देश में वैसे किसी कानून के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए, जो पंथ के नाम पर बनाया गया हो।

नया वक्फ कानून तब पंथनिरपेक्ष कहा जा सकता है, जब ऐसे ही कानून अन्य पंथों के लिए भी बने हों। कथित सेक्युलर भारत में ऐसा नहीं है। वक्फ कानून जैसा कोई कानून अन्य पंथों और यहां तक कि शेष अल्पसंख्यक समूहों के लिए भी नहीं है। वक्फ कानून के तहत जो वक्फ बोर्ड हैं, उनके पास एक वक्फ ट्रिब्यूनल भी होता है। देश में किस्म-किस्म के अनेक ट्रिब्यूनल हैं, लेकिन वैसा ट्रिब्यूनल और कोई नहीं, जैसा वक्फ बोर्डों के पास है। एक सच्चे पंथनिरपेक्ष देश में या तो ऐसा ट्रिब्यूनल सभी समुदायों की उन संपत्तियों के संदर्भ में हो या फिर किसी के पास नहीं हो, जिनका उपयोग धार्मिक और परोपकारी कार्यों के लिए होता है।

आखिर किसी समुदाय के धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए उपयोग होने वाली संपत्ति से जुड़े किसी विवाद को पहले किसी ट्रिब्यूनल में ले जाने की बाध्यता क्यों होनी चाहिए? ऐसा नहीं है कि भारत तब सेक्युलर यानी पंथनिरपेक्ष बना, जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान कांग्रेस को सेक्युलरिज्म के प्रति समर्पित दिखाने के लिए संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर और समाजवादी शब्द नत्थी कराए। भारत तो हजारों वर्ष पहले भी सेक्युलर प्रकृति का था। इसी कारण हमारे संविधान निर्माताओं ने इसी प्रकृति का संविधान बनाया।

समस्या यह हुई कि सेक्युलरिज्म की मनचाही व्याख्या करते हुए उसे वोट बैंक की राजनीति का जरिया बना लिया गया। नतीजा यह हुआ कि समान नागरिक संहिता का बिल लाने के स्थान पर हिंदू कोड बिल लाया गया। इस विधेयक के जरिये हिंदुओं के विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, गोद लेने संबंधी कानून बनाए गए। ऐसा करके बिल्कुल ठीक किया गया, लेकिन कोई नहीं जानता कि अन्य समुदायों को क्यों छोड़ दिया गया? इसी दौरान एक अन्य कानून वक्फ संपत्तियों को लेकर भी बनाया गया। इसे ही पिछले सप्ताह संसद ने संशोधित किया।

स्वतंत्रता के बाद के दशक में ही अंग्रेजों के बनाए उस कानून को भी कुछ हेर-फेर के साथ बनाए रखा गया, जिसके तहत मंदिरों का संचालन राज्य सरकारों की ओर से किया जाता था। जब अन्य समुदायों को अपने धर्मस्थलों के संचालन का अधिकार प्राप्त है तो हिंदुओं को क्यों नहीं? यह समझ आता है कि सरकार धर्मस्थलों के संचालन को लेकर नियम-कानून बनाए, लेकिन इसके नाम पर यह नहीं होना चाहिए कि वह उनका नियंत्रण अपने हाथ में ले ले। समझना कठिन है कि एक ही देश में बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों के संचालन के लिए दो तरह के कानून क्यों बने हुए हैं?

पंथनिरपेक्षता की खिल्ली उड़ाने वाले ऐसे कानूनों के निर्माण का सिलसिला किस तरह जारी रहा, इसका एक उदाहरण शिक्षा अधिकार कानून है। इसे इस नेक इरादे से बनाया गया था कि निर्धन वर्ग के छह से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जा सके। अल्पसंख्यकों के शिक्षा संस्थानों को इस कानून से बाहर करके एक अच्छे कानून को भेदभावपूर्ण तो बनाया ही गया, पंथनिरपेक्षता की खिल्ली भी उड़ाई गई।

आखिर अल्पसंख्यकों की ओर से संचालित स्कूलों को गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने से छूट क्यों मिलनी चाहिए? जनकल्याण में इस भेद का औचित्य सिद्ध करना कठिन है। विडंबना यह है कि जब शिक्षा अधिकार कानून की इस विसंगति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो वह उसे नजर नहीं आई। उसने अल्पसंख्यकों के स्कूलों को शिक्षा अधिकार कानून से बाहर रखने को सही ठहराया। स्पष्ट है कि संसद से बने कई कानूनों ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों से भी पंथनिरपेक्षता पर प्रश्नचिह्न लगता है।

यह देखना दयनीय है कि जब हर तरह के भेद समाप्त होने चाहिए, तब कुछ नियम-कानून ही भेदभाव का जरिया बने हुए हैं। अलग-अलग समुदायों के बीच भेद करने वाले कानूनों का दुष्परिणाम यह हुआ है कि पंथनिरपेक्षता यानी सेक्युलरिज्म आज एक हेय शब्द बन गया है। आज वे दल भी सेक्युलरिज्म की बात नहीं करते, जो खुद को सेक्युलर बताया करते थे। निःसंदेह पंथनिरपेक्षता कोई बुरी अवधारणा नहीं है, लेकिन वह तब अवश्य बुरी हो जाती है, जब उसके नाम पर एक ही देश में अलग-अलग समुदायों के लिए भिन्न-भिन्न कानून बनते हैं। यदि देश को वास्तव में सेक्युलर बनाने की कोशिश नहीं होगी तो सेक्युलरिज्म और अधिक बदनाम होगा और यह अच्छा नहीं होगा।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)