प्रणय कुमार : यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि जिस वर्ग ने संस्कृत को मृत, कालबाह्य एवं अनुपयोगी भाषा मानकर शैक्षिक एवं सार्वजनिक विमर्श से लगभग बहिष्कृत-सा कर रखा था, कैंब्रिज विश्वविद्यालय के शोधार्थी ऋषि राजपोपट के पाणिनि पर किए शोध के पश्चात उनके सुर भी बदलने लगे हैं। राजपोपट के निष्कर्षों को अंग्रेजी मीडिया ने भी पर्याप्त स्थान दिया, जिसे आम तौर पर हिंदी-संस्कृत के नाम से परहेज रहा है। उल्लेखनीय है कि संस्कृत की ढाई हजार वर्ष से अनसुलझी एक गुत्थी को ऋषि राजपोपट ने सुलझाने का दावा किया है। यह ईसा से 700 वर्ष पूर्व भाषाओं के जनक कहे जाने वाले भारतीय मनीषी, महान भाषाविद् पाणिनि के नियम से संबंधित है।

राजपोपट ने अपने शोध पत्र ‘इन पाणिनि, वी ट्रस्ट डिस्कवरिंग द एल्गोरिदम फार रूल कान्फ्लिक्ट रिजोल्यूशन इन द अष्टाध्यायी’ में इस गुत्थी को सुलझाया है। आचार्य पाणिनि ने ही सर्वप्रथम भाषा को व्याकरणबद्ध किया। उनकी महान कृति ‘अष्टाध्यायी’ में आठ अध्याय और लगभग 4,000 सूत्र हैं। कहा जाता है कि इसमें लिखे गए नियम बिल्कुल एक मशीन की भांति काम करने के लिए बनाए गए हैं। इस ग्रंथ में मूल शब्दों से नए शब्दों को प्राप्त करने या बनाने के लिए नियमों का एक समूह सम्मिलित है।

कई बार नए शब्द को बनाने के लिए परस्पर विरोधी नियम होते हैं, जिससे विद्वान भ्रमित हो जाते हैं कि कौन सा नियम अधिक उपयुक्त एवं परिणामदायी है। इसके समाधान के लिए पाणिनि ने स्वयं एक मेटा-नियम लिखा था, जिसकी परंपरागत व्याख्या इस प्रकार की गई कि नियमों के मध्य संघर्ष या विसंगति की स्थिति में व्याकरण-क्रम में बाद में आने वाले नियम प्रभावी माने जाएं। मेटा रूल की इस पारंपरिक व्याख्या को राजपोपट ने इस तर्क के साथ खारिज किया है कि पाणिनि का मतलब था कि क्रमशः एक शब्द के बाएं और दाएं पक्षों पर लागू होने वाले नियमों के बीच, दाएं पक्ष पर लागू होने वाले नियमों का चयन किया जाना चाहिए।

राजपोपट का दावा है कि उनके अन्वेषण से बिना किसी अपवाद के व्याकरणिक रूप से सही शब्दों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा और अष्टाध्यायी द्वारा प्रदान किए गए नियमों का अधिक सटीक उपयोग करने में सुविधा होगी। यह खोज संस्कृत के अध्ययन में क्रांतिकारी बदलाव लाएगी तथा कंप्यूटर एवं आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। इससे दुनिया भर में संस्कृत के प्रति रुचि भी बढ़ेगी। अपनी इस गौरवपूर्ण उपलब्धि पर राजपोपट ने कहा है, ‘पाणिनि के पास अद्भुत मस्तिष्क था। मानव इतिहास में उनके जैसे मस्तिष्क वाला व्यक्ति होने का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।’ अष्टाध्यायी की उत्कृष्टता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जर्मन विद्वान मैक्समूलर तक को कहना पड़ा कि इस ग्रंथ के समक्ष अंग्रेजी, ग्रीक या लैटिन की संकल्पनाएं नगण्य हैं। स्मरण रहे कि ‘अष्टाध्यायी’ मात्र सूत्र व्याकरण-ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग वहां स्थान-स्थान पर चित्रित हैं।

वैसे अभी राजपोपट के निष्कर्षों को संस्कृत विद्वानों की मानक कसौटी पर कसा जाना शेष है। वस्तुत:, सनातन संस्कृति एवं शास्त्रोक्त परंपरा में कोई ज्ञान एवं तत्व-चिंतन चर्चा, शास्त्रार्थ, प्रयोग एवं व्यवहार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरकर ही पूर्णता को प्राप्त होता है, परंतु इतना तो तय है कि राजपोपट की उपलब्धि ने विद्वत वर्ग का ध्यान आकर्षित किया है और संस्कृत को एक असीम संभावनाशील, रोजगारपरक, आधुनिक एवं वैज्ञानिक भाषा के रूप में चर्चा के केंद्र में पुनः ला खड़ा किया है, पर हमें पहले से इससे अवगत होना चाहिए कि संस्कृत साहित्य में समस्त मानव-जाति की मौलिक एवं उदात्त अनुभूतियों को स्वर मिला है। संसार की सबसे प्राचीन, उदार एवं सर्वसमावेशी सभ्यता की स्मृतियां, ज्ञान और अनुभव की थाती संस्कृत में ही संचित हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेकानेक दुर्लभ एवं अनूठी विशेषताओं से सुसज्जित तथा विज्ञान एवं तकनीक की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त होने के बावजूद संस्कृत की घनघोर उपेक्षा की गई और स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात भी उसे यथोचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पाया। कम से कम अब तो यह काम होना चाहिए। इसलिए और होना चाहिए, क्योंकि भारत का कथित बुद्धिजीवी वर्ग अपनी ही भाषा, कला, संस्कृति, ज्ञान-परंपरा एवं युगों से चली आ रही मान्यताओं के प्रति संशय एवं मतिभ्रम का शिकार रहा है। इस वर्ग के भीतर भारत की सनातन परंपराओं, जीवन-मूल्यों और गौरवशाली उपलब्धियों के प्रति हीनता का भाव है। वह भारत की श्रेष्ठतम उपलब्धियों या महानतम अवदान को तब तक स्वीकार नहीं करता, जब तक पश्चिम उसे मान्यता नही दे देता।

पश्चिम की मान्यता-स्वीकृति के पश्चात भी वह किंतु-परंतु के साथ उसकी यथासंभव उपेक्षा करने की कुचेष्टा करता रहता है। भाषा, कला, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, स्थापत्य, इतिहास या ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों का आकलन-मूल्यांकन वह पश्चिमी-परकीय दृष्टिकोण से ही करता आया है। इसीलिए समय, परिस्थिति एवं उपयोगिता की कसौटी पर खरा उतरने के बावजूद योग, आयुर्वेद, खगोल, भारतीय काल-गणना से लेकर संस्कृत एवं सनातन ज्ञान-परंपरा की प्राचीनता, श्रेष्ठता, सार्वभौमिकता एवं वैज्ञानिकता आदि के प्रति यह वर्ग हीनता एवं नकारात्मकता से भरा रहा है।

(लेखक शिक्षाविद एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)