जागरण संपादकीय: सुस्त विकास दर और महंगाई की चुनौती, ब्याज दरें घटाने के विकल्पों पर देना होगा ध्यान
महंगाई के मुद्दे की बात करें तो यह अभी भी आरबीआई के सहजता वाले 4 प्रतिशत के दायरे से बाहर है। वैसे तो तमाम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें अपेक्षाकृत नियंत्रित दायरे में हैं लेकिन सब्जियों एवं फलों की कीमतों ने महंगाई को हवा दे रखी है। पिछले वर्ष भी सर्दियों में फल-सब्जियों के दाम ऊंचे ही रहे थे और अभी भी ऊंचे बने हुए हैं।
धर्मकीर्ति जोशी। बीते दिनों आए चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के मोर्चे पर सुस्ती के आंकड़ों ने हैरान करने का काम किया। इस दौरान जीडीपी में कमी के आसार तो लग रहे थे, लेकिन उसमें इतनी गिरावट व्यापक अनुमानों के उलट ही रही है। इस परिदृश्य से प्रभावित हुए बिना भारतीय रिजर्व बैंक यानी
आरबीआई ने शुक्रवार को अपनी मौद्रिक समीक्षा में नीतिगत ब्याज दरों को जिस प्रकार यथावत रखा है उससे यही संकेत मिलते हैं कि विकास की परवाह करने के साथ ही महंगाई को काबू में रखना रिजर्व बैंक की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है। साथ ही भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए जीडीपी वृद्धि दर का अपना अनुमान भी घटाकर 6.6 प्रतिशत कर दिया है। इसके पीछे एक वजह तो चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था का कमजोर प्रदर्शन ही है, जिससे आर्थिकी के लिए तीसरी एवं चौथी तिमाही में भी उतनी भरपाई की उम्मीद नहीं कि वह पूर्वानुमानों के अनुरूप गति पकड़ सके।
दूसरी तिमाही के दौरान अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन की बात करें तो जीडीपी की 5.4 प्रतिशत की वृद्धि ने चौंकाने का काम किया। जीडीपी की यह तस्वीर आरबीआई, बाजार का आकलन करने वाले विश्लेषकों से लेकर बाजार में सक्रिय तत्वों के अनुमानों से भी उलट रही। अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ने के संकेत तो पहले से ही दिखने लगे थे, लेकिन 5.4 प्रतिशत की वृद्धि कई संकेत देने वाली है। यह अर्थव्यवस्था में स्थायित्व को भी रेखांकित करती है।
इस धीमेपन की कारणों की पड़ताल की जाए तो नीतिगत ब्याज दरों को 21 महीने से यथावत बनाए रखने वाला आरबीआई का रुख भी इसके लिए एक हद तक जिम्मेदार है। इसे लेकर कई स्तरों पर आवाज उठती रहती है। औद्योगिक गतिविधियों को गति देने के लिए ब्याज दरों में कमी की आवश्यकता को लेकर बहस लंबे समय से जारी है। हालांकि ब्याज दरों को लेकर आरबीआई के अपने तर्क हैं और चूंकि यह उसका ही विशेषाधिकार है तो परिस्थितियों का समग्र आकलन करने के बाद वही अंतिम निर्णय करता है।
घाटे पर नियंत्रण करने के लिए सरकारी मितव्ययिता भी वृद्धि की गति को प्रभावित कर रही है। सरकारी खर्च में कमी से भी आर्थिक गतिविधियों पर असर पड़ रहा है। चुनावी आचार संहिता की वजह से कई परियोजनाओं का काम चुनाव निपटने के बाद भी परवान नहीं चढ़ पाया। मौसमी परिघटनाओं ने भी जहां खनन गतिविधियों को अवरुद्ध रखा तो बेहतर बारिश की वजह से बिजली की मांग सीमित रही। दूसरी तिमाही में खनन और विद्युत क्षेत्रों में गिरावट इसकी पुष्टि करती है।
वैश्विक अस्थिरता और अन्य कारणों से निर्यात भी संकुचित हुए, जिनका असर समस्त उत्पादन शृंखला पर देखने को मिला। इस बीच, कई रुझानों के आधार पर यही लगता है कि दूसरी छमाही में अर्थव्यवस्था फिर से गति पकड़ेगी। रबी की फसल में उत्पादन भी बेहतर होने की उम्मीद है तो सरकारी खर्च में बढ़ोतरी से आर्थिक गतिविधियां भी गति पकड़ती हुई दिखाई देंगी। इसीलिए, हमने चालू वित्त वर्ष के लिए 6.8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि के अनुमान को अभी तक संशोधित नहीं किया है। हालांकि, अद्यतन आंकड़ों के बाद इस अनुमान को लेकर कुछ स्पष्ट रूप से कहा जा सकेगा।
पिछले कुछ समय से वैश्विक अस्थिरता एवं भू-राजनीतिक तनाव ने दुनिया भर में आर्थिक समीकरण बिगाड़ने का काम किया है। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद शांति एवं स्थिरता की उम्मीद बढ़ी है। आशा है कि जनवरी में उनके कार्यकाल संभालने के बाद पश्चिम एशिया में कायम तनाव शांत होगा तो रूस-यूक्रेन युद्ध यदि तत्काल नहीं रुका तो वह और नहीं भड़केगा। कोविड महामारी के बाद से ही ऐसे झटकों से जूझ रही दुनिया के लिए यह बहुत बड़ी राहत होगी।
हालांकि ट्रंप के आने से एक नए किस्म के टैरिफ युद्ध की आशंका बढ़ रही है। माना जा रहा है कि वह आयात अधिशेष वाले देशों के साथ सख्ती से निपटेंगे। वैसे तो उस सूची में भारत भी है, लेकिन ट्रंप का निशाना मुख्य रूप से चीन पर होगा। यदि वह कुछ आक्रामक रुख अपनाते हैं तो पहले से ही दबाव झेल रहे निर्यात की डगर और कठिन होती जाएगी। चीन पर भी उनकी सख्ती वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर डालेगी। तात्कालिक तौर पर यह भारत के लिए कुछ लाभदायक भी हो सकता है।
ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय उत्पादन शृंखला एक बड़ी हद तक चीनी इनपुट्स पर आश्रित है तो संभावित अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते चीनी उत्पाद और सस्ते में उपलब्ध हो सकते हैं, जिससे मैन्यूफैक्चरिंग किफायती होगी। चूंकि चीनी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से निर्यात पर केंद्रित है और यदि अमेरिका उसके उत्पादों के लिए लाल झंडी दिखाता है तो उसे अन्य बाजारों में अपने उत्पाद खपाने ही होंगे।
भारत के दृष्टिकोण से यह भी सकारात्मक दिखता है कि शांति एवं स्थायित्व के दौर में कच्चे तेल की कीमतें और घट सकती हैं। चीन द्वारा बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक व्हीकल्स यानी ईवी की ओर संक्रमण से भी कच्चे तेल की वैश्विक मांग में कमी आएगी। इसके चलते भी तेल उत्पादकों के समक्ष अपने उत्पाद खपाने की चुनौती बढ़ेगी।
महंगाई के मुद्दे की बात करें तो यह अभी भी आरबीआई के सहजता वाले 4 प्रतिशत के दायरे से बाहर है। वैसे तो तमाम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें अपेक्षाकृत नियंत्रित दायरे में हैं, लेकिन सब्जियों एवं फलों की कीमतों ने महंगाई को हवा दे रखी है। पिछले वर्ष भी सर्दियों में फल-सब्जियों के दाम ऊंचे ही रहे थे और अभी भी ऊंचे बने हुए हैं। हालांकि इस बार सर्दियों में दाम कुछ नरम होने की उम्मीद है।
इन्हीं पहलुओं को देखते हुए आरबीआई अभी भी ब्याज दरें घटाने को लेकर संकोच कर रहा है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि किसी भी प्रकार की मौद्रिक नरमी से स्थितियां हाथ से निकलें। बेहतर आपूर्ति के आसार देखते हुए अब यही उम्मीद लगती है कि फरवरी में ब्याज दरें घटने की कोई स्थिति बन सकती है।
(लेखक क्रिसिल में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)
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