यह अच्छा हुआ कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एनडीटीवी पर एक दिन की पाबंदी के फैसले को स्थगित कर दिया और सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले को सुनने पर राजी हो गया। शीर्ष अदालत चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, लेकिन इस मामले से देश में प्रेस की आजादी के दुरुपयोग और सरकार द्वारा मीडिया के विरुद्ध अवांछनीय हस्तक्षेप, दोनों पर बहस छिड़ गई है। अब गणेश शंकर विद्यार्थी या दुर्गादास जैसे मिशन मोड वाले पत्रकार तो रहे नहीं। आज तो पत्रकारिता बस एक नौकरी होकर रह गई है जिसे सामान्यत: कोई व्यापारी या राजनीतिज्ञ नियंत्रित करता है। एनडीटीवी इंडिया भी इसका अपवाद नहीं। सभी को विदित है कि उस चैनल के मालिक प्रणव रॉय का माक्र्सवादी नेताओं वृंदा करात और प्रकाश करात से पारिवारिक संबंध है और 2009 से उसके वित्तीय पक्ष पर प्रमुख व्यवसायी मुकेश अंबानी का वर्चस्व, लेकिन उसके कारण यदि उस चैनल का झुकाव भाजपा और मोदी सरकार के विरुद्ध हो तो भी उसकी इजाजत भारतीय संविधान देता है।
इंग्लैंड के प्रतिष्ठित अखबार मैनचेस्टर गार्डियन के संपादक सीपी स्कॉट ने कहा था कि तथ्य और मूल्य (विचार) पत्रकारिता के दो मूल तत्व हैं। तथ्य अपरिवर्तनीय है, लेकिन विचार स्वतंत्र हैं। इसका आशय है कि तथ्यों को प्रस्तुत करने में पत्रकार स्वतंत्र नहीं हैं। उसे तथ्यों का प्रस्तुतीकरण करने में सामाजिक हित और राष्ट्रीय सुरक्षा सरोकारों को ध्यान में रखना चाहिए। न तो तथ्यों का नग्न प्रस्तुतीकरण किया जा सकता है, न ही उसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीतिक संस्कृति में आई गिरावट ने संपूर्ण समाज को अपनी चपेट में ले लिया। आज जनता के मन में यह पीड़ा है कि देश में लगभग सभी संस्थाओं में भारी गिरावट आई है और मीडिया भी उससे अछूता नहीं।
एनडीटीवी इंडिया को सामान्यत: एक गंभीर चैनल के रूप में देखा जाता है, लेकिन कभी-कभी अति उत्साही पत्रकारों को व्यावसायिक मर्यादाओं और राष्ट्रीय सुरक्षा सरोकारों की अनदेखी करने को प्रेरित कर देती है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि एनडीटीवी इंडिया ने जानबूझकर और पाकिस्तानी आतंकवादियों के हैंडलर्स की मदद करने के उद्देश्य से इस वर्ष जनवरी में पठानकोट में आतंकवादियों के हमले की कोई रिपोर्टिंग की होगी, लेकिन उन पर जाने-अनजाने अपनी लक्ष्मण रेखा को लांघने का आरोप तो लग सकता है। यह सच है कि चैनल के प्रस्तुतीकरण में जो आपत्तिजनक बातें थीं वे अन्य चैनलों पर भी आईं, लेकिन सरकार द्वारा राष्ट्रीय चैनल एनडीटीवी इंडिया को ही इसका दोषी मानने से यह गलत संदेश गया कि सरकार ने विरोधी विचारधारा के चैनल को दंडित किया है। इससे और चैनलों में यह भय समा गया कि सरकार कहीं इंदिरा गांधी के पदचिन्हों पर तो नहीं जा रही। कहीं यह 1975 की तरह दूसरे आपातकाल की आहट तो नहीं, पर इस प्रकरण से सरकार ने संभवत: मीडिया को यह संदेश देने की कोशिश की है कि रिपोर्टिंग में उनको राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा।
4 नवंबर 2016 के प्राइम टाइम प्रोग्राम ‘जब हम सवाल नहीं पूछ पाएंगे कुछ बता नहीं पाएंगे तो हम करेंगे क्या’ में एनडीटीवी ने जनता को मुद्दे से थोड़ा भटकाने की कोशिश जरूर की। स्थगित प्रतिबंध न तो सवाल पूछने पर था, न ही कुछ बताने पर। वह एक विशेष संदर्भ में एक विशेष रिपोर्टिंग को लेकर था और ऐसा प्रतिबंध लगाने का अधिकार सरकार को है। संविधान के द्वारा भाषण और अभिव्यक्ति का जो मौलिक अधिकार हमें प्राप्त है और जो प्रेस की आजादी की आधारशिला है उस पर देश की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशों से मैत्रीपूर्ण संबंध, शांति व्यवस्था और नैतिकता आदि के आधार पर समुचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार राज्य को प्राप्त है। कोई अखबार या चैनल यह नहीं कह सकता कि उस पर तब तक कोई कार्रवाई न हो जब तक अन्य सभी पर भी वैसी ही कार्रवाई न की जाए। बड़े और प्रभावी मीडिया संस्थानों पर तो और ज्यादा जिम्मेदारी होती है। हालांकि लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा यदि सरकार सेबी या ट्राई मॉडल पर किसी स्वतंत्र मीडिया अभिकरण की स्थापना करे और केवल उसके प्रतिवेदन के आधार पर ही कोई प्रतिबंध लगाए।
आज देश में 1790 प्राइवेट और 190 सरकारी चैनल हैं जो दिन-रात सक्रिय रहते हैं। वे लोगों की जरूरत बन गए हैं और इसी का फायदा उठाकर वे चैनल पत्रकारिता कम और व्यवसाय या राजनीति ज्यादा करने लगे हैं। कई बार वे न्यायपालिका की तरह व्यवहार करते हैंैं। प्रेस की अनेक गतिविधियां मीडिया एथिक्स के प्रतिकूल होती हैं। आखिर उन पर कौन नियंत्रण करेगा? जो मीडिया सबसे हिसाब मांगता है उससे कौन हिसाब मांगेगा? कहने को देश में मीडिया को नियंत्रित करने के लिए 1978 में बनी विधिक संस्था प्रेस काउंसिल और स्वत: नियंता न्यू ब्राडकास्टिंग स्टैंडड्र्स अथॉरिटी हैं, पर जानकारों की मानें तो ये संस्थाएं भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं लगा पातीं। यह जरूरी है कि मीडिया को अनियंत्रित और उच्छृंखल होने नहीं दिया जा सकता, लेकिन लोकतंत्र में यह भी जरूरी है कि सरकार मीडिया के कामों में कम से कम हस्तक्षेप करे बावजूद इसके कि संविधान उसे ऐसा करने की इजाजत देता है। वैश्वीकरण के बाद से यह और भी जरूरी हो गया है कि विदेशी और शत्रु देश देसी मीडिया को वित्तीय मदद देने की आड़ में देश की राजनीति और सरकार के निर्णयों को प्रभावित न कर सकें। अनेक प्रतिष्ठित चैनलों को तमाम विदेशी स्नोतों से वित्तीय मदद मिलने से इसकी संभावना प्रबल हो जाती है, लेकिन वे चैनल समाज की गंभीर समस्याओं को उठाकर और लोकतंत्र के सिद्धांतों की दुहाई देकर जनता में अपनी साख भी बनाए रहते हैं।
भारतीय लोकतंत्र और मीडिया के कॉर्पोरेटाइजेशन में कैसे संतुलन स्थापित किया जाए, यह चुनौती आज हमारे सामने है। सोशल मीडिया इसके समाधान में एक प्रभावी भूमिका निभा रहा हैै। संभव है मोदी सरकार द्वारा एनडीटीवी इंडिया को ऑफ एयर करने के निर्णय को इसी के चलते स्थगित करना पड़ा हो। हो सकता है सरकार ने किसी रणनीति के तहत संपूर्ण मीडिया को एक पेनाल्टी कार्ड दिखाया हो, जिससे मीडिया सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा पर और संवेदनशील होने के लिए आत्ममंथन कर सके। नि:संदेह सरकार और मीडिया में टकराव से दोनों का नुकसान होता है और जनता भी विभाजित होती है, परंतु इस प्रकरण से मीडिया एथिक्स और उत्तरदायित्व तथा मीडिया और सरकार के संबंधों पर एक सार्थक राष्ट्रीय बहस की शुरुआत की जा सकती है, जिससे अंतत: हमारा लोकतंत्र और मजबूत हो सके।
[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]