आध्यात्मिक रुझान रखने वाले व्यक्ति प्रशंसा और निंदा से परे होते हैं। जो व्यक्ति प्रशंसा और निंदा के भंवर में फंस जाते हैं उनका इससे बाहर निकलना असंभव हो जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने उद्देश्य से भी दूर हो जाता है। प्रशंसा और निंदा की आशा संजोये व्यक्ति अध्यात्म और कर्म की महत्ता को नहीं समझ पाता। तल्ख शब्दों में कहें तो प्रशंसा और निंदा विष के समान ही हैं। अनेक लड़ाइयों व दुष्प्रवृत्तिायों का जन्म प्रशंसा और निंदा से ही होता है। बहुत कम लोग ही प्रशंसा की अपेक्षा नहीं रखते। जीवन में अनेक भाव और नवरस व्यक्ति के अंदर जन्म से ही उत्पन्न हो जाते हैं। जो लोग इन भावों को समय के अनुसार प्रयोग करके उन पर नियंत्रण रखना सीख लेते हैं वे अपना जीवन सफल बना लेते हैं और जो ऐसा नहीं कर पाते उन्हें अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति अटल व सुदृढ़ होते हैं। प्रशंसा और निंदा करके उन्हें उनके पथ पर से डिगाया नहीं जा सकता। वे सिर्फ अपने कर्म से मतलब रखते हैं। उन्हें अपने कर्म के साथ ही ईश्वर की आस्था पर विश्वास होता है। अध्यात्म उन्हें जीवन के सुनहरे सफर पर अग्रसर करता है।

इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि एक हद तक प्रशंसा आत्मविश्वास को बढ़ाती है, लेकिन उस समय जब व्यक्ति वास्तविक तौर पर प्रशंसा का हकदार हो। अगर किसी की झूठी प्रशंसा की जाए तो उसका कोई मतलब नहीं है। इसी तरह अक्सर असफल व ईष्र्यालु लोग योग्य व कामयाब व्यक्तियों से चिढ़कर उनकी निंदा करने से बाज नहीं आते। ऐसे में योग्य व कामयाब व्यक्ति अध्यात्म की डोर पकड़कर ही प्रशंसा और निंदा जैसे भावों से दूर रहते हैं और अपने काम में लीन होकर सही मार्ग पर चलते हैं। प्रशंसा और निंदा व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। इनसे मुक्त होना असंभव है। हां अध्यात्म और सद्विचारों के साथ इन भावों को हर हाल में सकारात्मक रूप से अपनाकर जीवन और कर्म को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। प्रशंसा और निंदा को तटस्थ भाव से ग्रहण करके व्यक्ति अध्यात्म की गहराइयों में डूबकर अनेक लोगों को अपने नेक विचारों से लाभान्वित कर सकता है।

[रेनू सैनी]

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