[ डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ]: कुछ नेता भाषा को राजनीति के अखाड़े में खींच लाए हैं। वे भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदी की 38 बोलियों के समर्थक भी अपनी बोलियों के लिए ऐसा ही अभियान चला रहे हैं। इनमें अवधी, ब्रज, बुंदेली, मालवी, कुमाऊंनी, गढ़वाली, हरियाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, अंगिका, मगही, सरगुजिया, हालवी, बघेली आदि शामिल हैं, लेकिन सबसे ज्यादा दबाव भोजपुरी और राजस्थानी की ओर से है। भोजपुरी के समर्थक तो अवधी भाषी जनसंख्या एवं साहित्यकारों को भी अपने साथ दिखा रहे हैं।

भाषाई राजनीति

यह तय है कि यह भाषाई राजनीति केवल भोजपुरी और राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा देने से खत्म नहीं होगी। जब तक सभी 38 बोलियों को भाषा का दर्जा नहीं मिलेगा वे तब तक संघर्षरत रहेंगी। इसके बाद मराठी, गुजराती, बांग्ला समेत दूसरी भाषाओं की बोलियां भी स्वतंत्र भाषा का दर्जा हासिल करने की मुहिम में जुटेंगी। ऐसी स्थिति में एक तरह की भाषिक अराजकता फैल सकती है।

हिंद और हिंदी पर वोट की राजनीति

केवल वोट की राजनीति के लिए हिंद और हिंदी के स्वाभिमान पर चोट न की जाए। इस संदर्भ में महात्मा गांधी का कथन खासा उल्लेखनीय है, ‘जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण है कि हर बोली को चिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो वह राष्ट्र विरोधी और विश्व विरोधी है। मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिंदी या हिंदुस्तानी की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए। यह आत्महत्या नहीं, बल्कि देश हित के लिए दी गई कुर्बानी होगी।’

बोलियों को भाषा न बनाएं

वास्तव में गांधी जी के इसी लक्ष्य को साकार करने का कार्य हमारे संविधान निर्माताओं ने किया। इस महादेश में आंतरिक एकता तथा संवाद का एकमात्र माध्यम बनकर हिंदी ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। अंतरराष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन के प्रथम अध्यक्ष डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने लिखा था कि, ‘जो बोलियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि ये बोलियां एक दूसरे के लिए प्रेषणीय होकर बोलने वालों के लिए महत्व रखती हैं, परस्पर विभक्त हो जाने पर उनका कोई मोल न रह जाएगा।’ साफ है कि यदि हिंदी का संयुक्त परिवार टूटता है तो देश भी कमजोर हो जाएगा। ऐसे में व्यापक राष्ट्रहित में हमें हिंदी को मजबूत बनाना चाहिए और बोलियों को भाषा बनाने का मोह छोड़ना चाहिए।

भाषिक व्यवस्था के समक्ष संकट

आज निहित स्वार्थ के लिए जो लोग हिंदी को कमजोर करने का उपक्रम कर रहे हैं वे देश की भाषिक व्यवस्था के समक्ष संकट उत्पन्न कर रहे हैं। वे नहीं जानते हैं कि हिंदी के टूटने से देश की भाषिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाला धागा टूट जाएगा। वस्तुत: जिसे हम राजभाषा हिंदी कहते हैं वह अनेक बोलियों का समुच्चय है। हिंदी की यही बोलियां उसकी प्राणधारा हैं जिनसे वह शक्तिशाली बनकर विश्व की सबसे बड़ी भाषा बनी है, लेकिन जो बोलियां विगत 1300 वर्षों से हिंदी का अभिन्न अंग रही हैं उन्हें कतिपय तत्व अलग करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें एकजुट होकर हिंदी को टूटने से बचाना चाहिए अन्यथा देश की सांस्कृतिक-भाषिक व्यवस्था चरमरा जाएगी।

हिंदी को तोड़ने की कोशिश

यहां विचारणीय है कि हिंदी और उसकी तमाम बोलियां अपभ्रंश के सात रूपों से विकसित हुई हैं और वे एक दूसरे से इतनी घुलमिल गई हैं कि परस्पर पूरकता का अद्भुत उदाहरण हैं। यह भी सच है कि हिंदी के भाग्य में सदैव संघर्ष लिखा है। वह संतों, भक्तों से शक्ति प्राप्त करके लोक शक्ति के सहारे विकसित हुई है। आज विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक होने के कारण विश्व की नवसाम्राज्यवादी ताकतें हिंदी को तोड़ने में जुटी हैं। वे भलीभांति जानती हैं कि यदि हिंदी इसी गति से बढ़ती रहेगी तो विश्व की बड़ी भाषाओं मसलन चीन की मंदारिन, अंग्रेजी, स्पेनिश और अरबी इत्यादि के समक्ष एक चुनौती बन जाएगी।

हिंदी का बोलबाला

कुछ समय पहले पंजाबी कनाडा की दूसरी राजभाषा बना दी गई है और हाल में संयुक्त अरब अमीरात ने हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया है। दूसरी ओर आज हिंदी मानव संसाधन की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बन गई है। हिंदी चैनलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। बाजार की स्पर्धा के कारण ही सही अंग्रेजी चैनलों का हिंदी में रूपांतरण हो रहा है। इस दौर में वेब-लिंक्स और गूगल सर्किट का बोलबाला है। इस समय हिंदी में भी एक लाख से अधिक ब्लॉगर सक्रिय हैं। अब सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।

सोशल मीडिया में हिंदी

गूगल का स्वयं का सर्वेक्षण भी बताता है कि विगत तीन वर्षों में सोशल मीडिया पर हिंदी में आने वाली सामग्री में 94 प्रतिशत की दर से इजाफा हुआ है जबकि अंग्र्रेजी में केवल 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह इस बात का द्योतक है कि हिंदी वैश्वीकरण के संवहन में अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर रही है। हिंदी की विकासमान शक्ति विश्व के समक्ष एक प्रभावी मानक बन रही है।

हिंदी एक संपर्क भाषा

आखिर जो विषय साहित्य, समाज, भाषा विज्ञान और मनीषी चिंतकों का है उसे राजनीतिक रंग क्यों दिया जा रहा है। हिंदी का प्रश्न अभिनेताओं, नेताओं के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इस देश के जनसमुदाय ने उसे संपर्क भाषा के रूप में स्वत: स्वीकारा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब संविधान निर्माताओं ने देश की राजभाषा के रूप में हिंदी का सर्वसम्मति से चयन किया था तो उन्होंने स्वेच्छा से देशहित में बोलियों का बलिदान किया था, लेकिन अब कुछ ताकतें इस मोर्चे पर संघर्ष कराना चाहती हैं।

हिंदी को बिखरने से रोकें

याद रखें कि अपने संख्याबल के दम पर ही हिंदी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल कर सकती है। यदि भोजपुरी, राजस्थानी समेत हिंदी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची मे शामिल किया जाता है तो हिंदी बिखर जाएगी और यह सपना भी टूट जाएगा। इससे हिंद और हिंदी के सांस्कृतिक-भाषिक बिखराव की अंतहीन प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी। हिंदी के संयुक्त परिवार की अनदेखी करने वाले आसन्न संकट को नहीं देख पा रहे। इस समय जो हिंदी का पक्ष नहीं लेगा उसे भावी पीढियां क्षमा नहीं करेंगी।

( लेखक मुंबई विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं )