निष्काम कर्मयोगी
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहते हैं 'जो सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, जीत-हार, यश-अपयश, जीवन-मरण, भूत-भविष्य की चिंता न करके मात्र अपने कर्तव्य में लीन रहता है वही सच्चा निष्काम कर्मयोगी है। कर्मयोगी इस सत्य से परिचित होते हैं कि सांसारिक द्वंद्व तो एक के बाद एक आते हैं और आते रहेंगे। इनका प्रभाव क्षणिक और अस्थायी तथा मात्र नाशवान शरीर तक ही सीमित है। आत्मा स्थायी और शाश्वत है, उसका उत्थान और पतन ही मनुष्य का वास्तविक उत्थान और पतन है। इसलिए जो भी कर्म किए जाएं आत्मोन्नति को ध्यान में रख कर ही किए जाएं। यदि यह मान भी लें कि कर्मो के लिए प्रेरणा परमात्मा से मिलती है तो इस सत्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि 'सत्यं शिवं सुंदरम' से युक्त परमात्मा कभी हम मनुष्यों को गलत कर्म करने की प्रेरणा नहीं देगा। ऐसी प्रेरणा अपने ही मन की उपज होती है। उस महान सत्ता का प्रतीक-प्रतिनिधि आत्मा के रूप में अपने भीतर बैठा है जो सदा प्रेरणाएं ही संप्रेरित करता है, परंतु मन द्वारा उनकी उपेक्षा होने से वे व्यवहार में नहीं उतर पाती। मन की अपेक्षा यदि अपनी गतिविधियों को आत्म प्रेरणा के अनुरूप परिचालित किया जाए तो हम कभी गलत कर्मो की ओर न बढ़ें। अस्तु कर्म-अकर्म का दायित्व अपने ऊपर न मानकर परमात्मा पर मानना अनासक्त कर्मयोग का गलत अर्थ लगाना है। अनासक्त कर्मयोग शब्द स्वयं भी अपने वास्तविक आशय को प्रकट करता है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है-अनासक्त और कर्मयोग। अनासक्त का अर्थ है राग, मोह, प्रीति न रखना। कोई भी छोटा अथवा बड़ा काम क्यों न किया जाए, उसके प्रति कर्तव्य का अहंकार न जोड़ा जाए। अहंकार की उत्पत्ति आसक्ति से होती है। दूसरा शब्द है कर्मयोग। गीता इसकी व्याख्या करती है 'योग: कर्मसु कौशलम्'-कर्म में कुशलता ही योग है। कार्यकुशल वही हो सकता है जिसे उचित अनुचित कर्मो के बीच अंतर का बोध हो। इसलिए कार्य कुशलता में अशुभ कर्मो के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।
[लाजपत राय सभरवाल]
मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।