हरेंद्र प्रताप। विभिन्न समस्याओं को लेकर जब लोग ऐसा कुछ कहते हैं कि ‘अरे भाई इसके खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नहीं होता? कोई नेता आगे क्यों नहीं आता?’ तो यह कुंठाग्रस्त समाज की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि जनआंदोलनों के प्रतिफल से घायल/छले गए समाज की आह की अभिव्यक्ति है। शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था को इसलिए अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में अच्छा माना गया, क्योंकि इसमें जनता को शासन बदलने और शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठाने का मौलिक अधिकार प्राप्त है।

भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद-19 में लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी, शांतिपूर्वक सम्मेलन, संघ बनाने आदि का अधिकार दिया है। फिर भी कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा होता है तो दोष जनता का नहीं है। कुछ आंदोलनों और नेताओं ने उसके विश्वास की हत्या की है। देश की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना के लिए चले राष्ट्रव्यापी आंदोलन का श्रेय कांग्रेस और गांधी जी को दिया जाता है। लंबे संघर्ष और हजारों के बलिदानों का ही परिणाम था कि वर्ष 1947 में देश आजाद हुआ, पर क्या कांग्रेस में लोकतंत्र था? निर्वाचित नेता सुभाषचंद्र बोस को क्यों इस्तीफा देना पड़ा या सरदार पटेल देश के प्रथम प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सके? जब भी इसकी चर्चा होगी तो कांग्रेस और गांधी जी की भूमिका पर प्रश्न तो खड़े होंगे ही। न केवल आजादी के आंदोलन के दौरान, बल्कि आजादी के बाद भी कांग्रेस परिवारवाद और लोकतंत्र की हत्या, निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त करने और 1975 में आपातकाल थोपने के आरोप से दोषमुक्त नहीं हो सकती।

भारत की आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका छात्र-युवाओं की थी, पर दुख के साथ कहना पड़ता है कि निरंकुश सत्ता पर नियंत्रण रखने वाली इस छात्र-युवा शक्ति को ‘राजनीति से दूर रहो’ का पाठ पढ़ाया जाने लगा। छात्र-युवा यथास्थितिवाद का विरोधी तथा जल्द संगठित होने वाला वर्ग है। क्रांति उसके स्वभाव में है। उससे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाना अपेक्षित है, पर ‘करियर’ के लालच में वह अपने राष्ट्रीय दायित्व से विमुख होता गया। देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार और निरंकुशवाद के खिलाफ सड़कों पर आगे आने में उसे वर्षों लग गए।

आजादी के बाद वर्ष 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में आंदोलन चला। आजादी के आंदोलन के गर्भ से निकली कांग्रेस के ऊपर भ्रष्टाचार और निरंकुशवाद के आरोप लगने लगे थे। 1975 में इंदिरा गांधी पर जब भ्रष्टाचार का आरोप लगा, तब न केवल उन्होंने इस्तीफा देने से इन्कार कर दिया, बल्कि देश में आपातकाल लगाकर विरोध को कुचलने का असफल प्रयास भी किया। ‘कोई नृप होय हमें का हानि’ इसी कुंठा को तोड़ने के लिए 1974 में बिहार में छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा में परिवर्तन, चुनाव पद्धति में सुधार आदि जनसमस्याओं को लेकर शुरू हुए आंदोलन से डरी कांग्रेस ने सरकारी दमन और हिंसा का सहारा लिया। छात्रों द्वारा शुरू किए गए इस आंदोलन को जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व मिला तथा आम जन का सहयोग।

छात्र आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन की मांग को लेकर राष्ट्रव्यापी हुआ। आपातकाल के बाद 1977 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा। सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ता की बंदरबाट यानी जनता पार्टी की आपसी लड़ाई ने जन को दूसरी बार निराश किया। 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में पुनः वापसी हो गई। उस आंदोलन के नेता रहे लालू प्रसाद 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। पशुपालन घोटाले में 1997 में जेल जाते समय उन्होने अपनी गृहिणी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। यह चर्चा सरेआम थी कि जेल से ही वह अपनी सरकार चला रहे हैं। हां, उन्होंने अपने पद से इस्तीफा अवश्य दे दिया था, पर जिस कांग्रेस पर वह भ्रष्टाचार और परिवारवाद का आरोप लगाते थे उसी में वह आकंठ डूब गए। 2005 में उनकी सरकार चली गई। 2010 में तो उनके दल को विधानसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष के लिए जितनी सीटें चाहिए थीं, उतनी भी नहीं मिलीं, पर 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी न केवल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, बल्कि सत्ता का हिस्सा भी बनी।

वर्ष 1974 के 37 वर्ष बाद अप्रैल, 2011 में लोकपाल कानून की मांग को लेकर अन्ना हजारे ने दिल्ली में आमरण अनशन शुरू किया। उस आंदोलन ने देश के जनमानस को फिर से आंदोलित किया। कम समय के लिए ही सही, उस आंदोलन को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिला। वर्तमान में दिल्ली और पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी ‘आप’ और उसके नेता अरविंद केजरीवाल अपने को लोकपाल आंदोलन की उपज बताते हैं। अब उनके ही ऊपर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लग रहा है। उनके मंत्री-सांसद गिरफ्तार भी हुए हैं तथा उनके भी गिरफ्तार होने की आशंका है। उनकी पार्टी के प्रवक्ता कह रहे हैं कि ‘गिरफ्तारी के बाद भी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने पद से इस्तीफा नहीं देगे। सरकार जेल में रह कर चलाएंगे। कैबिनेट की बैठक जेल में होगी। सरकारी पदाधिकारी फाइल लेकर जेल में ही जाएंगे।’

महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले आंदोलन से निकली कांग्रेस, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन से निकले लालू प्रसाद और उनके दल राजद तथा अन्ना हजारे के आंदोलन से निकले केजरीवाल और उनके दल आप का हश्र ‘आंदोलनों को मिले जनसमर्थन’ पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यह विडंबना ही है कि जो लालू, नीतीश और केजरीवाल कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए, वे आज उसी के साथ हैं। इसका इंतजार रहेगा कि क्या भविष्य में कोई गांधी, जयप्रकाश या अन्ना हजारे समाज के विश्वास को बहाल कर पाएगा?

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)