बलबीर पुंज। भारत के प्रति पाकिस्तान का शत्रुभाव किसी जमीन के टुकड़े, व्यक्तिगत दुश्मनी या सत्ता-संघर्ष का परिणाम नहीं है। यह सदियों से चले आ रहे एक गहन वैचारिक संघर्ष की उपज और दो पूरी तरह भिन्न दृष्टियों का टकराव है। जहां भारत समरसतापूर्ण, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी कालजयी संस्कृति का वाहक है, वहीं पाकिस्तान उस संकीर्ण मजहबी चिंतन की अभिव्यक्ति है, जो आठवीं शताब्दी में अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम के साथ तलवार की नोक पर इस भूभाग में दाखिल हुई थी।

पाकिस्तान आधिकारिक रूप से अपने जन्म को बिन कासिम द्वारा 712 में सिंध के हिंदू राजा दाहिर को हराने से जोड़ता है। वैचारिक दृष्टिकोण से पाकिस्तान गजनवी, गोरी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली जैसे इस्लामी आक्रांताओं एवं शासकों को ही नायक मानता है, जिन्होंने मजहबी जुनून के वशीभूत भारत में हिंदुओं का कत्लेआम किया। उनके मंदिरों को तोड़ा और सांस्कृतिक प्रतीकों को रौंदा। पाकिस्तान मानता है कि उस पर भारतीय उपमहाद्वीप में अधूरा ‘गजवा-ए-हिंद’ पूरा करने की मजहबी जिम्मेदारी है। यही कारण है कि यह संघर्ष दो देशों का नहीं, बल्कि दो सभ्यताओं के बीच का द्वंद्व है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने हालिया बयानों में यह रेखांकित भी किया, जिसका कुछ लोगों ने तथ्यात्मक कसौटी पर उपहास उड़ाया हो, पर मूल रूप से ट्रंप सही कह रहे थे।

पाकिस्तान ने भारत पर पहला आतंकी हमला अपने जन्म के दो माह पश्चात अक्टूबर 1947 में ही कर दिया था। तब उसकी सेना कबाइलियों के साथ मिलकर लूटपाट, हत्या और दुष्कर्म करते हुए श्रीनगर की ओर बढ़ रही थी। पाकिस्तान द्वारा 1965 के युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ अगले ‘एक हजार वर्षों तक लड़ने’ की धमकी देना, 1971 के युद्ध में करारी हार के बाद भारत को ‘हजारों घाव’ देकर समाप्त करने की नीति अपनाना, 1984 में सियाचिन पर कब्जे का प्रयास, 1999 में मित्रता के बदले कारगिल में छुरा घोंपना और भारत में तमाम आतंकी हमले कराना उसी सदियों पुराने सभ्यतागत संघर्ष का छोटा हिस्सा भर है।

हमेशा मुंह की खाने के बाद भी पाकिस्तान के जुनूनी मजहबी उन्माद पर विराम नहीं लग पाया। इसी उन्माद से प्रेरित उसके आतंकी हमलों को देश में एक वर्ग यही कहकर खारिज करता रहा कि ‘आतंक का कोई मजहब नहीं होता।’ इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में एक के बाद एक आतंकी हमले होते रहे। इस दौरान कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार एवं पलायन के अलावा, मुंबई, दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, पुणे, हैदराबाद और बोधगया जैसे स्थानों को निरंतर निशाना बनाया गया। अक्षरधाम मंदिर से लेकर जम्मू-कश्मीर विधानसभा और यहां तक कि भारतीय संसद भी आतंकी हमलों का शिकार हुई।

2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद देश में बहुत कुछ बदला है। विगत 11 वर्षों के दौरान ऐतिहासिक रूप से संवेदनशील जम्मू-कश्मीर और कुछ माओवाद-प्रभावित जिलों को छोड़कर शेष भारत में किसी भी बड़े आतंकी हमले की घटना लगभग नगण्य रही है। यह तुलनात्मक शांति उस नीति-परिवर्तन का परिणाम है, जिसे वर्तमान भारतीय नेतृत्व ने आतंकवाद और उसके पोषक, चाहे वे देश के भीतर हों या बाहर, के प्रतिकार के रूप में अपनाया है। 2016 में उड़ी और 2019 में पुलवामा के आतंकी हमलों के प्रतिकारस्वरूप भारत ने बिना पूर्व चेतावनी के सर्जिकल स्ट्राइक कर शत्रु को चौंकाया था, लेकिन पहलगाम के जवाब में भारत ने न केवल अपनी रणनीतिक मंशा स्पष्ट की, बल्कि प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से एलान किया था कि दुनिया के किसी भी कोने में आतंकियों को उनकी करतूतों की सजा दी जाएगी। आपरेशन सिंदूर की सफलता दोषियों को दंडित करने की दृढ़ प्रतिज्ञा का ही परिणाम है। प्रधानमंत्री मोदी ने यथार्थ ही कहा कि ‘शांति का मार्ग शक्ति से होकर जाता है।’

प्रश्न है कि क्या अब पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद समाप्त हो जाएगा? तार्किक जवाब तो यही होगा कि एकाएक तो ऐसा संभव नहीं। यह लड़ाई लंबी चलेगी। 1971 में भारतीय नेतृत्व ने पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांट दिया। फिर भी पाकिस्तान की भारत-हिंदू विरोधी मानसिकता नहीं बदली। उसने सीधे युद्ध के स्थान पर आतंकियों के माध्यम से भारत के खिलाफ छद्म युद्ध शुरू कर दिया। भारत की भांति इजरायल भी अपने जन्म से ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित मजहबी जुनून और घृणा का शिकार रहा है। शायद ही कोई दौर हो जब इजरायल को आतंक से न जूझना पड़ा हो, लेकिन अपनी संकल्पशक्ति से वह बखूबी लड़ रहा है। भारत को ऐसे ही संकल्प के साथ आतंकी हमलों के खिलाफ लड़ने हेतु तैयार रहना होगा।

पाकिस्तान कोई प्राकृतिक, ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक कारणों से बना देश नहीं है। यह वास्तव में एक कृत्रिम राष्ट्र है, जिसे 1947 के पूर्व भारतीय मुस्लिमों के एक बड़े वर्ग ने वामपंथियों और अंग्रेजों के सहयोग से आकार दिया था। इसकी संरचना स्वयं विरोधाभासी है। ‘सच्चा मुसलमान’ साबित होने की होड़ में वहां शिया, सुन्नी और अहमदिया एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। ‘तहरीक-ए-तालिबान’ जैसे संगठन हजारों नागरिकों-सैनिकों को इसलिए मार रहे हैं, क्योंकि वे उनके अनुसार ‘खालिस शरीयत’ नहीं अपनाते।

बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा और सिंध में पाकिस्तान-विरोधी भावनाएं उफान पर हैं। बलूचिस्तान में विद्रोहियों ने मार्च से अब तक 300 से अधिक पाकिस्तानी सुरक्षाकर्मियों को मारने का दावा किया है। इस पृष्ठभूमि में नए भारत की आतंक के प्रति ‘शून्य सहनशीलता’ की नीति पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान (फौज सहित) को आतंकवाद की भारी कीमत का स्मरण कराती रहेगी। देर-सबेर उसे समझ आएगा कि आतंकवाद का भरण-पोषण महंगा और आत्मघाती सौदा है। इसलिए भविष्य में वह भारत पर आतंकी हमले से पहले कई बार सोचेगा। जब तक भारतीय नेतृत्व और जनमत सजग रहकर पाकिस्तान पर यह दबाव बनाए रखेगा, तब तक भारत सुरक्षित रहेगा। स्पष्ट है कि सतत चौकसी और भीषण प्रतिकार ही आतंकी घटनाओं को रोकने का एकमात्र उपाय है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)