विचार: केरल से कुछ सीखें अन्य सरकारें, मजहबी मान्यताओं के ठेकेदारों पर लगाम जरूरी
यह सही है कि इससे संबंधित व्यापक अनुभव एवं आंकड़े उपयोगी होंगे लेकिन नीतियों को लागू करने का मामला किसी की मनमानी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता । तमाम वैज्ञानिक साक्ष्य यही पुष्ट करते हैं कि नियमित एरोबिक एक्सरसाइज व्यक्ति को अच्छा महसूस कराने में कारगर साबित होती है।
आरिफ हुसैन तेरुवर्त। छात्रों की सेहत और सकारात्मकता से जुड़ी केरल शिक्षा विभाग की जुंबा जैसी पहल बहुत सराहनीय है। ऐसी पहल की लंबे समय से प्रतीक्षा थी। एक्सरसाइज यानी किसी प्रकार की कसरत सरीखी गतिविधि तनाव बढ़ाने वाले कार्टिसोल जैसे हार्मोन को घटाने में बड़ी मददगार होती है। तनाव बढ़ने पर ही अक्सर बच्चे और किशोर नशाखोरी की गिरफ्त में आ जाते हैं।
ऐसे में संगीत की थाप पर चलने वाली जुंबा जैसी गतिविधि बहुत उपयोगी प्रतीत होती है। यह बच्चों एवं किशोरों को किसी भौतिक सजा के बजाय आनंद की अधिक अनुभूति कराती है। राज्य में बीते दो वर्षों के दौरान नाबालिगों में नशाखोरी से जुड़े मामले बढ़े हैं, उसे देखते हुए एक अनुभव आधारित व्यावहारिक समाधान की आवश्यकता महसूस हो रही है, जिसे हर कक्षा में सहजता से लागू किया जा सके।
हर अच्छी पहल में खलल डालने के लिए कुछ विघ्नसंतोषी सदैव सक्रिय रहते हैं। जुंबा डांस मामले में भी ऐसा ही हुआ और विजडम इस्लामिक आर्गेनाइजेशन नाम की संस्था इसके विरोध में उतर आई। संस्था के महासचिव टीके अशरफ ने जुंबा को डीजे शैली वाला बताते हुए कहा कि इसमें लड़के-लड़कियां ‘अधनंगे’ होकर नाचते हैं। एक अन्य संगठन-समस्ता से जुड़े मौलवियों ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए जुंबा को अश्लील करार दिया। इस चौंकाने वाली आलोचना का सरोकार इस शैली या सार्वजनिक स्वास्थ्य से न होकर ‘हया’ जैसी इस्लामिक मान्यता से कहीं ज्यादा था।
जब ऐसी मजहबी दलीलों का मजाक बनाया जाने लगा तो विरोध करने वालों ने स्वर बदलते हुए इस मामले में ‘परामर्श’ और ‘दीर्घकालिक अध्ययन’ की दुहाई देनी शुरू कर दी। यह और कुछ नहीं अपनी मूल मंशा को छिपाने के लिए गोलपोस्ट बदलने जैसा था, जिसमें कथित नैतिक आग्रह जुड़े हुए थे।
यह धारणा मुझे स्वीकार्य नहीं कि पाठ्यक्रम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को लेकर एक निर्वाचित सरकार मजहबी मान्यताओं के ठेकेदारों की अनुमति पर निर्भर होकर रह जाए। इससे पंथनिरपेक्षता की पूरी संकल्पना ही विकृत हो जाएगी।
इससे न केवल धार्मिक-मजहबी मामलों से राज्य को दूर रखने के सिद्धांत को ठेस पहुंचेगी, बल्कि वह नीति भी वैधता प्राप्त करती जाएगी कि जब तक मजहबी ठेकेदार हरी झंडी नहीं दिखाएंगे, तब तक कोई नीति सिरे नहीं चढ़ पाएगी। किसी हिंदू, ईसाई या पंथनिरपेक्ष सांस्कृतिक संगठन ने जुंबा का विरोध नहीं किया। आम तौर पर कट्टर समझे जाने वाले मुस्लिम संगठन ने ही ऐसा किया। धार्मिक-मजहबी प्रविधान निजी संस्थाओं के दायरे में तो स्वीकार्य हो सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक स्कूलों में उन्हें चीजों को निर्धारित करने की निर्णायक शक्ति नहीं दी जा सकती।
यह आरोप भी गले नहीं उतरता कि जुंबा की लैटिन अमेरिकी जड़ें ‘सांस्कृतिक आक्रमण’ करती हैं। देखा जाए तो केरल में इस्लाम का आगमन ही समुद्री मार्ग से हुआ। जिन्हें फिटनेस से जुड़ी एक विदेशी पद्धति अपनाने में खोट दिखता है, उन्हें आयातित मजहब, स्मार्टफोन और खाड़ी से आने वाले चेक स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं दिखता। यह भी गजब की बौद्धिक कलाबाजी है। यदि वाकई में बच्चों के समग्र हितों को प्राथमिकता देनी है तो रूढ़िवादी समूहों को तत्काल साफ-सफाई शुरू करनी होगी।
केरल की मस्जिदों में ‘मी टू’ यानी यौन शोषण के मामले चर्चित हुए हैं। हज और उमरा के दौरान भी ऐसे आरोप सुनाई पड़े। केरल की अदालतों ने मदरसा शिक्षकों को यौन शोषण के मामलों में सजा भी सुनाई है। इसके बावजूद एक फिटनेस गतिविधि का विरोध किया जा रहा है और मजहबी स्थलों में हो रहे अपराधों पर चुप्पी साधी जा रही है। यह नैतिक उलटबांसी को ही उजागर करता है।
जुंबा को लेकर वाम नेतृत्व वाली एलडीएफ सरकार की दृढ़ता सराहनीय है। मंत्रियों ने दो-टूक कहा कि बाहरी तत्व नीतियों को निर्धारित नहीं कर सकते। जुंबा आलोचकों को आड़े हाथों लेकर यह भी कहते हुए सुना गया कि तालिबानी मानसिकता वाले लोग उस राज्य में अपनी पैठ मजबूत करना चाहते हैं, जो अपनी उच्च साक्षरता एवं सामाजिक सूचकांकों पर गर्व करता है। यह भाषा भले ही थोड़ी तीखी हो, लेकिन तुलना उपयुक्त है। तिलमिलाए आलोचक अब विशेष रूप से नशे से दूर रखने में जुंबा की उपयोगिता साबित करने वाले अध्ययनों पर जोर दे रहे हैं।
यह सही है कि इससे संबंधित व्यापक अनुभव एवं आंकड़े उपयोगी होंगे, लेकिन नीतियों को लागू करने का मामला किसी की मनमानी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। तमाम वैज्ञानिक साक्ष्य यही पुष्ट करते हैं कि नियमित एरोबिक एक्सरसाइज व्यक्ति को अच्छा महसूस कराने में कारगर साबित होती है। अगर कट्टरपंथियों को नशामुक्ति के और कुछ अन्य उपाय प्रभावी लगते हैं तो वे अपने संस्थानों में उन्हें आजमाने एवं उनके साक्ष्य दर्शाने के लिए स्वतंत्र हैं। तब तक जुंबा के प्रभाव और उसकी उपयोगिता को लेकर उनके सवाल कुछ और नहीं, बल्कि इसे टालने की तिकड़म ही अधिक लगेंगे।
जुंबा को लेकर व्यापक प्रतिक्रिया दर्शाती है कि इसे हाथोंहाथ लिया जा रहा है। केरल में कई जिलों में अभिभावक बच्चों को जुंबा सत्रों में भेजने के लिए तत्परता दिखा रहे हैं। तमाम आनलाइन सर्वे में भी इस पहल को व्यापक समर्थन मिला है। समाज ने इस पर अपनी मुहर लगा दी है। यह एक प्रकार की लोकतांत्रिक प्रतिरोधक प्रतिक्रिया है, जो इसी तरह व्यक्त की जानी चाहिए
(लेखक नान रिलीजियस सिटिजंस-केरल के प्रेसिडेंट और एक्स मुस्लिम्स इन केरल के संस्थापक हैं)
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