डा. ब्रजेश कुमार तिवारी। कोलकाता के आरजी कर अस्पताल की प्रशिक्षु महिला डाक्टर के साथ दुष्कर्म और हत्या मामले में एफआइआर दर्ज करने से लेकर इसकी जांच में बरती गई लापरवाही को लेकर बंगाल पुलिस पर हर तरफ से सवाल उठ रहे हैं। देश में पुलिस के कामकाज के तौर-तरीके में आई गिरावट का यह कोई पहला प्रकरण नहीं है। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे, जहां पुलिस का रवैया पूरी तरह से गैर-जिम्मेदाराना रहा। हालांकि यह सच है कि जब भी लोग परेशानी में फंसते हैं, तब उन्हें पुलिस से ही सहारा मिलता है।

पुलिस के बिना देश और राज्य के प्रशासन की सुरक्षा की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। कहीं पर भी जुलूस, सभा, रैली, मेले से लेकर होली-दीवाली, ईद आदि में शांति की व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी इसी के कंधों पर होती है। सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा भी पुलिस ही करती है। साथ ही दुर्घटना के बुरे वक्त में भी पुलिस साथी की भूमिका निभाती है। किसी भी आपदा, दुर्घटना या अप्रिय स्थिति में पुलिस की भूमिका सदैव अग्रणी रही है। यदि हम मुसीबत में हों और उसी समय पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई दे तो सचमुच में यह हमारा हौसला बढ़ाती है। यह आवाज ही सुनिश्चित कर देती है कि हमारी मदद के लिए कोई आ रहा है। यहां तक कि जब कोई अर्थी को कंधा देने वाला नहीं मिलता, तब पुलिस कंधा तक देती है।

कोरोना काल में तो पुलिस-प्रशासन ने एक तरह से अभिभावक की भूमिका निभाई। किसी भी व्यक्ति या संस्था की असल पहचान कठिन समय में होती है। बावजूद इसके 24 घंटे काम करने वाली पुलिस को लेकर आम जन में अविश्वास का भाव अभी भी है। कुछ भ्रष्ट पुलिस वालों की वजह से अधिकतर लोगों की नजरों में पुलिस की छवि खराब है। इसीलिए जिस आम आदमी को पुलिस के सबसे ज्यादा सहारे की जरूरत होती है, वह अक्सर पुलिस से दूर भागने का हरसंभव प्रयास करता है।

हम सबको पुलिस से बेहतर परिणाम की अपेक्षा है, मगर उस पर काम का बोझ इस कदर है कि आम आदमी अंदाजा नहीं लगा सकता। हम कभी-कभी तनाव लेते हैं, लेकिन हमको यह पता भी नहीं होता कि पुलिस रोजाना कितने तनाव में कार्य करती है। अधिकांश पुलिसकर्मी अपने परिवार के साथ त्योहार तक नहीं मना पाते। एक पुलिसकर्मी अपने परिवार का सदस्य होकर भी अपने परिवार में नहीं होता। चाहे कोई भी मौसम हो या दिन हो रात हो, थाना एवं पुलिस चौकी 24 घंटे खुली रहती है। महिला पुलिसकर्मियों के लिए कार्य करना तो और भी चुनौतीपूर्ण है। अधिकतर बीट एवं बंदोबस्त प्वाइंट पर शौचालय की सुविधा न होने के कारण उन्हें घंटों तक शौचालय उपयोग किए बिना खड़ा रहना पड़ता है। यहां तक कि पुलिस स्टेशन की संरचना और पुलिस की वर्दी भी पुरुषों के अनुसार ही बनाई गई है।

पुलिस पर राजनीतिक दबाव की तो कोई सीमा ही नहीं है। जब भी किसी पहुंच वाले शख्स को पुलिस पकड़कर ले जाती है, तो उसे छुड़वाने के लिए रसूखदार नेताओं के फोन आने लगते हैं। ऐसे समय में जब अनेक नेता अपराधी प्रवृत्ति के हैं तो पुलिस से क्या ही उम्मीद की जा सकती है? ऊपर से रोज-रोज के स्थानांतरण एवं पुलिस के कामकाज में राजनीतिक दखल ने पुलिस-व्यवस्था को बहुत तोड़ा है। इसके चलते खाकी की हनक कम होती जा रही है, जिससे लोगों में कानून का डर भी कम होता जा रहा है।

इन सब समस्याओं को दूर कर पुलिस को प्रभावी बनाने के लिए देश में पुलिस सुधारों पर काम करीब चार दशक पहले शुरू हुआ था, पर आज तक हम पुलिसकर्मियों की सेवा शर्तों को मानवीय नहीं बना पाए। संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार, जहां प्रति लाख आबादी पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, वहीं भारत की प्रति लाख आबादी पर 181 पुलिसकर्मी स्वीकृत हैं। वास्तव में असल संख्या इससे भी काफी कम है। इसीलिए लगभग 90 प्रतिशत पुलिसकर्मियों को हर रोज 15 घंटे से भी अधिक समय काम करना पड़ता है। तीन चौथाई कर्मी साप्ताहिक अवकाश भी नहीं ले पाते हैं। देश में लगभग 18 हजार पुलिस थाने हैं, पर ज्यादातर थानों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। जिस तेजी से महिलाओं की जरूरत पुलिस सेवा में बढ़ रही है, उसके लिए थानों में अलग से शौचालय, डिस्पेंसरी, नर्सिंग रूम, महिला पुलिसकर्मियों के लिए वैकल्पिक यूनिफार्म आदि उपलब्ध कराने होंगे। कैग आडिट में राज्य पुलिसबलों के पास हथियारों की कमी पाई गई है। पुलिस वाहनों को भी समयानुरूप करना होगा। अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप को खत्म करना और पुलिस व्यवस्था में आंतरिक पारदर्शिता एवं जवाबदेही जैसे मूल्य सुनिश्चित किया जाना भी समय की मांग है।

पुलिस सुधारों की रूपरेखा तय करते समय समाजशास्त्र के नियमों को भी ध्यान में रखना होगा, क्योंकि उसे जनता के साथ नियमित रूप से व्यवहार करने की आवश्यकता होती है। समाज और सिस्टम को पुलिस से अपेक्षाएं सबसे ज्यादा हैं, इसलिए विश्वास बनाना और उसे बढ़ाना आज पुलिस की अहम जिम्मेदारी है। उसे पुलिसिंग के अपने तरीकों में भी परिवर्तन करना होगा और यह तभी संभव है, जब एक तरफ समाज और दूसरी तरफ पुलिस-प्रशासन मिलकर प्रयास करें। बदलते परिवेश में पुलिस को और ज्यादा संवेदनशील बनना होगा। पुलिस को यह भी समझने की जरूरत है कि उसे मिले अधिकार जनता की सुरक्षा एवं सेवा के लिए मिले हैं, न कि लोगों पर रौब दिखाने के लिए। पुलिस की छवि अच्छी बने, इसके लिए भ्रष्ट पुलिसकर्मियों का पुरजोर विरोध भी उन्हें करना होगा। पुलिस को अपनी छवि और कार्य स्थिति में सुधार लाने के लिए नया नजरिया विकसित करना होगा। इन सभी प्रयासों के लिए प्रबुद्ध पुलिस के साथ-साथ राजनीतिक नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)