रामिश सिद्दीकी

सुप्रीम कोर्ट में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले का फैसला करने के लिए सुनवाई शुरू होने जा रही है। करीब तीन महीने पहले शीर्ष अदालत ने इस मसले की सुनवाई शुरू करने के पहले यह कहा था कि कोई स्थगन नहीं दिया जाएगा। इससे यह उम्मीद बंधी कि वह इस मसले का निस्तारण करने के लिए तैयार है। उसने उत्तर प्रदेश सरकार को 12 सप्ताह के भीतर 9,000 से अधिक पृष्ठों के दस्तावेजों का अनुवाद करने का निर्देश भी दिया था। दस्तावेजों में वे लिपियां और रिकॉर्ड हैं जो भिन्न भाषाओं जैसे पाली, अरबी, फारसी, गुरुमुखी, उर्दू में लिखे गए हैं। करीब 68 वर्ष पुराने इस अदालती विवाद में अदालत से बाहर समझौता होना ही श्रेयस्कर था और अभी भी है। देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने पहले यह सुझाव दिया भी था। इसके लिए उन्होंने मदद करने की भी पेशकश की थी, लेकिन बात बनी नहीं। आधुनिक भारत के इतिहास की दो ऐसी त्रसदियां हैं जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ाया तथा जान-माल का नुकसान किया। पहला हादसा 1947 में भारत के विभाजन के रूप में था और दूसरा अयोध्या ढांचे के ध्वंस के रूप में। इन दोनों हादसों ने न सिर्फ तमाम लोगों की जान ली, बल्कि समाज के दो वर्गो के बीच एक दरार भी डाल दी। शायद अयोध्या ढांचे में उतने पत्थर नहीं थे जितने लोग इस ढांचे के ध्वस्त होने के बाद देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए सांप्रदायिक दंगों में मारे गए।

स्वामी विवेकानंद ने 1898 में अपने एक मित्र को भेजे पत्र में लिखा था, ह्यमैं भविष्य के भारत को अराजकता और संघर्ष से उभरता देख रहा हूं, गौरवशाली और अजेय, जिसका मस्तिष्क वेदांत होगा और शरीर इस्लामिक, लेकिन यह तब संभव है जब आपसी सद्भाव और भरोसा लौटे।ह्ण 68 साल से चल रहे अयोध्या मसले से समाज को तो कोई फायदा नहीं पहुंचा, बल्कि अर्थव्यवस्था और आपसी सद्भाव को भारी नुकसान जरूर हुआ। 1992 में अयोध्या ढांचे के ध्वंस के तुरंत बाद वाराणसी के ह्यकाशी व्यापारी मंडलह्ण ने अपने उस समय के पांच लाख व्यापारी समुदाय से एक अपील की थी। इसमें उसने हिंदू और मुसलमान व्यापारी साथियों को मंदिर और मस्जिद की राजनीति से दूर रहने को कहा था। उसने इसके लिए जगह-जगह शांति प्रदर्शन भी किए थे। समाज में विश्वास कैसे लौटे, इस पर देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए, लेकिन ताली दो हाथ से बजती है। जब हिंदू समाज के नेतृत्व ने अपनी तरफ से हाथ बढ़ाया तब यह जरूरी था कि मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाले लोग उस हाथ को थामते, लेकिन इस पर कुछ लोग ही शांति-सद्भाव के साथ समाधान के पक्ष में आगे आए। इनमें से प्रमुख थे मेरे नाना मौलाना वहीदुद्दीन खान। अयोध्या ढांचे के ध्वंस के बाद उन्होंने अपनी तरफ से एक तीनसूत्रीय उपाय दोनों समाज के नेतृत्व के सामने रखा था ताकि दोनों समुदायों के बीच शांति-सद्भाव बहाल हो सके। उनके इस फॉमरूले पर एक सर्वेक्षण मुंबई के मिड-डे अखबार ने फरवरी,1993 कराया। यह सर्वेक्षण उर्दू दैनिक इंकलाब में भी प्रकाशित हुआ था। सर्वेक्षण के मुताबिक 69 प्रतिशत हिंदू और 63 प्रतिशत मुसलमानों ने मौलाना वहीदुद्दीन खान के तीन सूत्रीय समाधान का समर्थन किया था। 1मौलाना द्वारा सुझाई गई पहली बात थी कि मुसलमान बाबरी मस्जिद से जुड़ा अपना आंदोलन समाप्त कर दें। उन्होंने दूसरी बात यह कही थी कि हिंदू समाज अपने मंदिर-मस्जिद आंदोलन को अयोध्या में ही हमेशा के लिए समाप्त कर दे। तीसरी और आखिरी तजवीज उन्होंने भारत सरकार के सामने रखी थी कि भारत सरकार पूजास्थल अधिनियम, 1991 को भारत के संविधान का हिस्सा बना दे। इस समाधान को मुस्लिम नेतृत्व ने यह कहकर नकार दिया कि मौलाना के पास बाबरी मस्जिद के बारे में बात करने के लिए कोई अधिकार नहीं है। इसके अलावा मुस्लिम नेताओं की ओर से यह भी दलील दी गई कि मस्जिद की जमीन हमेशा मस्जिद की ही रहती है और कोई भी इसे बदल नहीं सकता। उसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने कहा था, ह्ययदि हम पंथनिरपेक्षता का मार्ग छोड़ दें तो देश टुकड़ों में बंट जाएगा।ह्ण सांप्रदायिक मसले केवल स्वार्थी नेताओं के एक छोटे समूह को ही लाभ देते हैं। पिछले 25 सालों में जब-जब मस्जिद के स्थानांतरण का सवाल उठा तब-तब बाबरी मस्जिद आंदोलन को आगे बढ़ाने पर जोर देने वाले मुस्लिम नेताओं ने यही कहा कि भारत में यह संभव नहीं है। ऐसा इसके बावजूद कहा जाता रहा कि अरब में मस्जिदों का स्थानांतरण करने के कई उदाहरण मौजूद थे। ऐसे उदाहरणों का उल्लेख मौलाना वहीदुद्दीन खान ने भी किया था। 1अरब देशों में तेल की खोज के बाद उनकी अर्थव्यवस्था बदल गई थी। अर्थव्यवस्था में आई अचानक तेजी के चलते अरब नेताओं ने अपने देश में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे के निर्माण का काम शुरू किया, लेकिन इस निर्माण कार्य में विभिन्न स्थानों पर जैसे राजमार्ग, हवाई अड्डे के रास्ते में बनीं अनेक मस्जिदें आ रहीं थीं। इस पर अरबी नेतृत्व उलेमाओं के पास पहुंचे कि इस हालात में क्या किया जाए? उलेमाओं ने इस्लामी शरीयत को सामने रखते हुए यह फतवा दिया कि मस्जिदों का स्थानांतरण किया जा सकता है। सवाल यह है कि भारत के मुस्लिम उलेमाओं ने अयोध्या विवाद को सुलझाने के लिए ऐसा फैसला लेने से मना क्यों कर दिया? आखिर उनकी ओर से किस आधार पर यह कहा जाता रहा कि यह भारत है अरब नहीं। बेशक यह भारत है, लेकिन इस्लाम चाहे अरब में हो या भारत में, वह तो नहीं बदल सकता। जब देश निर्माण के लिए अरब देशों में मस्जिदों का स्थानांतरण संभव हो गया तो आपसी भाईचारे और शांति के लिए भारत में क्यों नहीं संभव हो सका? भारत में मस्जिदों का स्थानांतरण बिल्कुल संभव था और है। यदि भारत का मुस्लिम नेतृत्व मस्जिद स्थानांतरण के लिए राजी हो जाता तो वह दुनियाभर में आपसी भाईचारे की एक मिसाल कायम करता। आखिर मुस्लिम नेतृत्व शायर इकबाल की इस बात को कैसे भूल गया कि ह्यहै राम के वजूद पर हिंदुस्तान को नाज, अहले वतन समझते हैं उसको इमाम-ए- हिंद।

यह अफसोस की बात है कि आज इमाम-ए-हिंद की जन्मभूमि पर मुट्ठीभर लोगों ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए विवाद खड़ा कर रखा है। अभी भी अयोध्या मसले पर नरम रवैया अपनाकर और आपसी सद्भाव को अहमियत देकर भारत का मुस्लिम नेतृत्व विश्व में रह रहे सभी मुसलमानों के लिए अनुकरणीय बन सकता है।

[ लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं ]