दुनिया के सामने पाकिस्तान को बेनकाब करने के लिए ओआइसी एक बेहतर मंच
70 साल पुरानी भारत-पाक समस्या का एक वास्तविक समाधान एक समानांतर विचारधारा तैयार करने में है। प्रश्न यह है कि क्या यह काम सिर्फ सरकार का है?
[ रामिश सिद्दीकी ]: इस माह एक मार्च को ओआइसी यानी इस्लामिक सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक के 46वें सत्र की बैठक संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबूधाबी में बुलाई गई। बैठक का विषय था, ‘50 साल का अंतर-इस्लामिक सहयोग: समृद्धि और विकास का खाका।’ इस्लामिक दुनिया के साथ भारत के जुड़ाव को समझते हुए भारत को संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्ला बिन जायद अल नाहयान द्वारा ‘गेस्ट ऑफ ऑनर’ देश के रूप में आमंत्रित किया गया था। भारत का प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने किया।
भारत की पहली बार भागीदारी
ओआइसी की स्थापना के बाद बीते 50 वर्षों में यह पहली बार था कि भारत ने उसके किसी सत्र में भाग लिया। अतीत में कई बार ऐसे अवसर आए जब ओआइसी सदस्यों ने भारत को उसकी मुस्लिम आबादी और उसके विभिन्न इस्लामिक राष्ट्रों के साथ भू-राजनीतिक रिश्तों के कारण ओआइसी में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, लेकिन भारत ने अनिच्छा दिखाई। 1969 में मोरक्को के शहर रबात में हुए एक अधिवेशन के बाद ओआइसी वजूद में आया था। इस अधिवेशन में भारत की भागीदारी पर पाकिस्तान ने अड़ंगा लगा दिया था। वक्त ने करवट ली और बीते दिनों पाकिस्तान की अड़ंगेबाजी के बावजूद सुषमा स्वराज उसके मंच पर पहुंचीं।
विश्व की दूसरी बड़ी संस्था
ओआइसी में लगभग 57 मुस्लिम देश हैं जिसमें से 30 इसके संस्थापक सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र के बाद विश्व की दूसरी बड़ी संस्था है। ओआइसी के शुरुआती अधिवेशनों में कभी कश्मीर का मुद्दा चर्चा का हिस्सा नहीं बना। इसके चर्चा में आने का कारण पाकिस्तान बना। शुरू से कई बार यह बात भिन्न-भिन्न देशों ने ओआइसी में उठाई कि भारत को भी इस संस्था का सदस्य बनना चाहिए, क्योंकि विश्व में दूसरी बड़ी संख्या में मुसलमान भारत में रहते हैैं, परंतु जब पाकिस्तान को इस बात की काट का कोई उपाय नजर नहीं आया तो उसने कश्मीर के मुद्दे पर अपनी कूटनीति तैयार की। उसने कहा कि विश्व का कोई भी देश अगर ओआइसी के संस्थापक देशों के साथ सीधे टकराव में है तो वह ओआइसी का सदस्य नहीं बन सकता। इस पर अन्य सदस्यों ने भारत के ओआइसी में प्रवेश पर चुप्पी साध ली।
पाक दरकिनार
पाकिस्तान के निरंतर विरोध करने के बावजूद 2006 में सऊदी अरब के शासक अब्दुल्ला जब 26 जनवरी, 2006 को भारतीय गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि बने तब उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि भारत को ओआइसी के साथ जुड़ना चाहिए। उन्होंने कहा था कि भारत को एक पर्यवेक्षक सदस्य के रूप में इस संस्था के साथ आना चाहिए। इसके अगले साल 2007 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अमेरिका के एक दूत को इस संस्था के साथ स्थायी रूप से जोड़ दिया। आज रूस और थाईलैंड जैसे देश भी ओआइसी के पर्यवेक्षक सदस्य हैं, जबकि इन सब देशों में मुस्लिमों की संख्या न के बराबर है।
ओआइसी में भारतीय पर्यवेक्षक
भारत को ओआइसी में पर्यवेक्षक इसलिए होना चाहिए, क्योंकि इसके मंचों पर पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को उछाल रहा है। वह न केवल कश्मीर, बल्कि भारत में मुसलमानों की स्थिति के बारे में भी आए दिन बोलते नजर आता है। आश्चर्यजनक रूप से भारत कई वर्षों तक केवल संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रदान किए गए मंचों पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ बोलता रहा, लेकिन गत पांच वर्षों में हमारी अंतरराष्ट्रीय नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। आज हम पाकिस्तान का असली चेहरा दिखाने के लिए जितने संभव हों उतने राजनयिक चैनलों का उपयोग करने के बारे में सोच रहे हैं और ओआइसी के मंच पर भारत का जाना इसका ही प्रमाण है।
अमेरिका रहा नाकाम
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद विश्व ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच युद्ध की तनावपूर्ण स्थिति देखी जिसे शीत युद्ध भी कहा जाता है। उस दौरान तो तत्कालीन अमेरिकी नेतृत्व ने बहुत समझदारी से काम लिया, लेकिन वही अमेरिका अलकायदा, तालिबान और आइएसआइएस के खतरे को समझने में नाकाम रहा। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उसने अपने कट्टरपंथी दुश्मनों के खिलाफ अपने हथियारों की शक्ति पर अधिक भरोसा किया, जबकि उसे उसी वैचारिक मशीनरी का इस्तेमाल करना चाहिए था जिसका इस्तेमाल उसने सोवियत संघ के खिलाफ शीत युद्ध के समय किया था।
भारतीय मुसलमानों की भूमिका
70 साल पुरानी भारत-पाक समस्या का एक वास्तविक समाधान एक समानांतर विचारधारा तैयार करने में है। प्रश्न यह है कि क्या यह काम सिर्फ सरकार का है? यह जिम्मेदारी अकेले सरकार की नहीं, बल्कि देश के नागरिकों की भी है कि वे अपनी सरकार के लिए सहायक सिद्ध हों। किसी भी देश के नागरिक उसके वास्तविक राजदूत होते हैं। वे कैसे रहते हैं, क्या कहते हैं और क्या सोचते हैं, इस पर उस देश की छवि बहुत हद तक निर्भर करती है? एक ऐेसे समय जब अन्य देश ओआइसी जैसे मंचों पर कश्मीर या भारत के मुसलमानों के बारे में झूठी बात कहते हैं तब भारतीय मुसलमानों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। आज भारत में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी है। पिछले कुछ दशकों में जितना समृद्ध भारतीय मुसलमान हुआ है और किसी देश में रहने वाला मुसलमान नहीं हुआ, फिर भी भारतीय मुस्लिम समाज के नेतृत्व ने अपने लोगों को पीड़ित मानसिकता का शिकार बना दिया है। उसने उन्हें कर्तव्य केंद्रित समाज के बजाय एक अधिकार केंद्रित समाज बना दिया है।
कुरान और हदीस की गलत व्याख्या
पिछले 70 वर्षों में मिस्न और पाकिस्तान ने मुस्लिम दुनिया के आध्यात्मिक नेतृत्व की नब्ज को पकड़ा और राजनीतिक नेतृत्व सऊदी अरब के हाथों में गया। सैकड़ों वर्षों तक मिस्न के अल-अजहर विश्वविद्यालय में बेहतरीन इस्लामिक साहित्य का निर्माण होता रहा, लेकिन कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड के उदय के बाद वहां के भी हालात बदल गए। पहले ऐसा बड़ा काम केवल भारत में ही हो पाया, जिसका कारण था यहां की आध्यात्मिकता, लेकिन भारत के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद भारतीय मुस्लिम समुदाय की रचनात्मकता को सामुदायिक नेताओं द्वारा दबा दिया गया। इसका लाभ पाकिस्तान उठा रहा है। उसके मुल्ला-मौलवी कुरान और हदीस की गलत व्याख्या कर स्वयं और अपने राजनीतिक नेतृत्व को लाभ पहुंचाने में लग गए और लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों का इस्तेमाल भी करने लगे।
इस्लाम का गलत इस्तेमाल
समय की मांग है कि भारतीय मुस्लिम समुदाय ओआइसी और मुस्लिम वर्ल्ड लीग जैसे मंचों का उपयोग करे। उसे भारत की वास्तविक छवि विश्व के सामने पेश करनी चाहिए और दुनिया को बताना चाहिए कि कैसे पाकिस्तान ने इस्लाम का नाम लेकर अपने गलत इरादों को पूरा करने की कोशिश की है।
( लेखक फोरम फॉर पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के अध्यक्ष हैैं )
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