विचार: एडीएम को अंग्रेजी बोलना जरूरी क्यों है? यह देश का दुर्भाग्य है कि किसी अधिकारी का अंग्रेजी न बोल पाना उसकी अक्षमता समझी गई
सच यह है कि उच्चतर अदालतों में अंग्रेजी का बोलबाला है। कहीं अनुवाद में गड़बड़ हो तो मूल अंग्रेजी ही मान्य होगा। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि तमिलनाडु कर्नाटक महाराष्ट्र आदि राज्यों के नेता हिंदी थोपने की फर्जी बात करके अपने राज्य की भाषा की अनदेखी करने के साथ अंग्रेजी के वर्चस्व को बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं।
राजीव सचान। उत्तराखंड में दूसरे राज्यों के लोगों के नाम मतदाता सूची से हटाने को लेकर दायर याचिका की सुनवाई करते हुए राज्य हाई कोर्ट ने पाया कि उसके समक्ष पेश नैनीताल के एडीएम प्रशासन विवेक राय ने माना कि वे अंग्रेजी समझ तो लेते हैं, लेकिन बोलने में दिक्कत होती है। नैनीताल हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और आलोक माहरा की खंडपीठ ने राज्य के मुख्य सचिव एवं राज्य निर्वाचन आयुक्त को यह जांचने का निर्देश दिया कि क्या अंग्रेजी न बोल पाने वाले अपर जिला मजिस्ट्रेट स्तर के किसी अधिकारी को कार्यकारी पद का प्रभावी नियंत्रण सौंपा जा सकता है?
पता नहीं मुख्य सचिव क्या करेंगे। क्या वे एडीएम की अंग्रेजी बोलने की दक्षता परखेंगे या हाई कोर्ट के निर्देश के अनुसार उन्हें ऐसे किसी पद पर नियुक्त करेंगे, जहां अंग्रेजी बोलने की जरूरत न हो। चूंकि उत्तराखंड हिंदीभाषी राज्य है, इसलिए विवेक राय के लिए उपयुक्त पद की कमी न होगी, लेकिन यदि उन्हें अन्यत्र भेजा जाता है तो उनके मान-सम्मान को धक्का लग सकता है।
लोग ऐसा कह सकते है कि ये वही अधिकारी हैं, जो अंग्रेजी नहीं बोल पाते। तमाम ऐसा भी कहेंगे कि आखिर उत्तराखंड विदेश में तो है नहीं। आखिर यहां अंग्रेजी बोलने की जरूरत क्यों है? अंग्रेजी समझ आ जाए तो ठीक है। सच तो यह है कि कुछ पूर्व प्रशासनिक अधिकारी, न्यायविद् और भाषाविद् समेत अन्य यह सवाल उठा रहे हैं कि भारत और खासकर हिंदी भाषी राज्य में अंग्रेजी बोलना जरूरी है या अपना काम सही तरीके से करना? कुछ लोग राज्य सरकार को सलाह दे रहे हैं कि उसे हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर करनी चाहिए।
उत्तराखंड सरकार जो भी करे, ऐसा कहने वाले लोग अवश्य होंगे कि प्रशासनिक अधिकारी को अंग्रेजी बोलना तो आना ही चाहिए। यह बहस आगे चलती रहेगी, लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विवेक राय किसी हिंदी भाषी राज्य के होंगे और उन्होंने राज्य की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास होगी। आम धारणा है कि यह परीक्षा पास करने वाले मेधावी होते हैं। वैसे यह जरूरी नहीं कि राज्यों की प्रशासनिक सेवा संबंधी परीक्षा या फिर संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा पास करने वाले सभी लोग प्रशासनिक रूप से दक्ष ही होते हैं।
जब तक इन परीक्षाओं की पात्रता के मानदंड नहीं बदलते, तब तक हमें इन्हें पास करने वालों को काबिल ही मानना होगा। विवेक राय हाई कोर्ट के समक्ष यह कह सकते थे या उनकी ओर से मुख्य सचिव अब भी कह सकते हैं कि उत्तराखंड पीसीएस परीक्षा तो अंग्रेजी में देने की अनिवार्यता ही नहीं। हैरानी नहीं कि कोई यह कहने लगे कि अब उत्तराखंड पीसीएस परीक्षा में अभ्यर्थियों के अंग्रेजी ज्ञान को अच्छे से परखा जाए। ऐसी कोई मांग होती है तब उसका विरोध भी होगा, क्योंकि उत्तराखंड की तो भाषा हिंदी ही है और यहां तैनात अधिकारियों के लिए इतना बहुत है कि उन्हें अंग्रेजी समझ आ जाए और वे कामचलाऊ अंग्रेजी बोल लें।
चूंकि अपने देश में अंग्रेजी जानना नहीं, उसे बोलना योग्यता और श्रेष्ठता का परिचायक है इसलिए उसका हौवा है-आतंक है। अपने देश में अंग्रेजी को ज्ञान, बुद्धिमत्ता और काबिलियत की भाषा माना जाता है। इसके बावजूद माना जाता है कि जापान, फ्रांस, जर्मनी, चीन आदि ने बिना अंग्रेजी के अद्भुत प्रगति की। कई देश ऐसे हैं, जहां अंग्रेजी जानने-बोलने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि वहां लोग यह कथित अंतरराष्ट्रीय भाषा न बोलते हैं और न समझते हैं। यह सच है कि अंग्रेजी की अपनी महत्ता है। कोई अंग्रेजी जाने और बोल भी ले तो अच्छी बात है।
आम तौर पर कूटनीति, व्यापार और तकनीक की भाषा मुख्यतः अंग्रेजी है, लेकिन एआइ के जमाने में अंग्रेजी जानना-बोलना जरूरी नहीं रह गया है, क्योंकि अब तुरंत अच्छा अनुवाद हो जाता है। शायद अपने देश में इस बात को अब भी नहीं समझा जाएगा, क्योंकि यहां धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना ही पर्याप्त नहीं। उसका लहजा भी ब्रिटिश या अमेरिकी होना चाहिए। यदि किसी का लहजा वैसा नहीं होता, जैसा कथित तौर पर होना चाहिए तो उसका मजाक उड़ता है, भले ही वह कितने ही उच्च पद पर हो या फिर कितना ही काबिल हो।
ऐसा मुख्यतः केवल भारतीयों के साथ है, चीनी, जापानी या अफ्रीकी लोगों के साथ नहीं। चूंकि कई देशों की भाषाओं में त, था, ध जैसे शब्द ही नहीं, इसलिए उनका लहजा अलग होता है। पश्चिम में तो यह अलग लहजा सामान्य समझा जाता है, पर भारत में असामान्य। इंडिया दैट इज भारत में अंग्रेजी बिन सब सून। अपने देश में लोग ठसक के साथ कहते हैं कि हिंदी या फिर उनकी अपनी मातृभाषा में उनका हाथ तंग है। वे हिंदी या फिर अन्य भारतीय भाषा बोले बिना उच्च पदों पर सुशोभित होते हैं। उन्हें कोई परेशानी भी नहीं होती।
यह थोथी बात है कि हिंदी अंग्रेजी के समकक्ष राजभाषा है। सच यह है कि उच्चतर अदालतों में अंग्रेजी का बोलबाला है। कहीं अनुवाद में गड़बड़ हो तो मूल अंग्रेजी ही मान्य होगा। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों के नेता हिंदी थोपने की फर्जी बात करके अपने राज्य की भाषा की अनदेखी करने के साथ अंग्रेजी के वर्चस्व को बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
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