जागरण संपादकीय: राजनीति पर असर डालने वाला कानून, मुस्लिम आधार पर राजनीति करने वाले दलों का सियासी वजूद खतरे में
एक बड़ा सवाल यह है कि यदि हिंदू समुदाय जातियों में बंट सकता हैउसे जातीय स्तर पर खंडित करके दल अपनी राजनीतिक रोटी सेंक सकते हैंसत्ता की दहलीज लांघ सकते हैं तो मुस्लिम वोट बैंक में दरार से क्यों परेशानी होने लगी?परेशानी यही है कि अगर पिछड़ा मुस्लिम समुदाय थोक वोट बैंक से अलग हुआ तो मुस्लिम आधार पर राजनीति करने वाले दलों का सियासी वजूद खतरे में पड़ जाएगा।
उमेश चतुर्वेदी। नया वक्फ कानून लागू होने के बाद कुछ राजनीतिक दल, गैर सरकारी संस्था-एनजीओ और मुस्लिम संगठन उसे असंवैधानिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक जा पहुंचे हैं, जबकि कुछ इसकी तैयारी में अपने कानूनी हथियार की धार तेज कर रहे हैं। आखिर इस कानून को लेकर इतना राजनीतिक हंगामा क्यों मचा है?
इसकी एक वजह ऐसी है, जिस पर कम ही लोगों का ध्यान गया है। इस कानून से मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वालों का रसूख कमजोर होता दिख रहा है। कुछ दलों को लगता है कि अगर मुस्लिम समुदाय बंटा तो उनकी राजनीति पस्त पड़ सकती है।
अपने देश में आजादी के बाद से ही पंथनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टीकरण की राजनीति जारी है। मुस्लिम समुदाय को लेकर धारणा यह बनी कि वह थोक वोट बैंक है। पहले आम चुनाव में विभाजन का दर्द और स्वाधीनता संघर्ष का गर्वबोध ताजा-ताजा था, जिसकी प्रतिनिधि कांग्रेस थी, लिहाजा ज्यादातर मतदाताओं ने उसे पसंद किया, लेकिन बाद के दिनों में परिपक्व होता वोटर अपनी दृष्टि से राजनीतिक दलों को परखने लगा। दूसरी ओर, अल्पसंख्यकवाद के कवच से मुस्लिम वोट बैंक भी मजबूत होता चला गया।
नए वक्फ कानून के खिलाफ बेशक मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा नाराज दिख रहा है, पर एक तबका समर्थन में भी उठ खड़ा हुआ है। इनमें अजमेर दरगाह के चिश्ती सैयद नसीरुद्दीन के साथ ही आल इंडिया सूफी सज्जादनशीं कौंसिल, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, भारत फर्स्ट जैसी संस्थाएं हैं। आल इंडिया इमाम आर्गेनाइजेशन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी भी नए वक्फ कानून के समर्थन में हैं। समर्थकों की सूची में जमीयत हिमायत उल इस्लाम, पसमांदा मुस्लिम महाज और पसमांदा मुस्लिम समाज भी है।
समर्थकों में सबसे ज्यादा मुस्लिम पसमांदा समाज के लोग हैं। जिन्हें आज की राजनीतिक भाषा में वंचित और शोषित कहा जाता है, वही पसमांदा हैं। पसमांदा मतलब पीछे छूट गए लोग। मुस्लिम समाज में इनकी हिस्सेदारी 85 प्रतिशत तक मानी जाती है। 1931 की जनगणना में मुस्लिम समुदाय की तीन सौ से ज्यादा जातियों का जिक्र था। आखिर क्या वजह है कि पसमांदा समाज को यह कानून पसंद आ रहा है?
इसे समझने के लिए मुस्लिम बुद्धिजीवी जफर सरेशवाला के बयान को देखना होगा। उन्होंने कहा है कि वक्फ के पास इतनी संपत्ति है कि यदि इसका इस्तेमाल सही से किया गया होता तो सिर्फ मुसलमान ही नहीं, देश का हिंदू भी गरीब नहीं रहता। कुछ ऐसी ही राय बिहार के राज्यपाल और मुस्लिम समाज के जाने-माने चिंतक आरिफ मोहम्मद खान की भी है।
उन्होंने पटना के महावीर मंदिर ट्रस्ट का हवाला देते हुए कहा है कि इसके अस्पताल और कई सेवा कार्य हैं, पर वक्फ बोर्ड के पास ऐसा कोई काम नहीं है। वक्फ बोर्ड इस आरोप से घिरे हैं कि उन्होंने अपने समुदाय के कमजोर तबके के कल्याण के लिए कभी कोई योजना नहीं चलाई। पसमांदा मुस्लिम समाज के राष्ट्रीय संयोजक फिरोज मंसूरी तो वक्फ बोर्डों को एक तरह से रसूखदार लोगों की कठपुतली बताते हैं। उनका कहना है कि करीब साढ़े आठ लाख एकड़ से ज्यादा की वक्फ की जमीन पर सिर्फ दो सौ लोगों का कब्जा है।
पसमांदा समुदाय की प्रतिक्रियाओं से साफ है कि मुस्लिम वोट बैंक में दरार पड़नी तय है। इसलिए और भी, क्योंकि नए वक्फ कानून ने पिछड़े और वंचित मुस्लिम समाज को सत्ता की कुंजी का पता बता दिया है। अब तक मुस्लिम राजनीति में अशराफिया मुसलमानों का कब्जा रहा है। अरब, अफगानिस्तान और मध्य एशिया से आए जो मुसलमान भारतीय मूल के मुस्लिम लोगों से खुद को बेहतर मानते हैं, उन्हें ही अशराफिया कहा जाता है। आजादी के बाद भी मुसलमानों का नेतृत्व इसी वर्ग के हाथ रहा। इसी कारण पसमांदा मुस्लिम राजनीति में हाशिए पर हैं।
पहली बार उन्हें एक करने के लिए पिछली सदी के आरंभ में आल इंडिया पचवारा मुस्लिम महाज का गठन हुआ। पिछली सदी के आखिरी दशक में बिहार के पत्रकार अली अनवर ने इस समुदाय की बात उठाई। पसमांदा समुदाय पर प्रधानमंत्री मोदी की भी नजर है। पहली बार पांच जून 2022 को उन्होंने हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में इस समाज के बीच काम करने की बात कही। 27 जून 2023 को उन्होंने भोपाल में भी पसमांदा समाज का जिक्र किया, लेकिन भाजपा को विशेष सफलता नहीं मिली। मुस्लिम समुदाय थोक वोट बैंक के रूप में बना रहा।
नए वक्फ कानून के बाद यही थोक वोट बैंक राजनीतिक दलों को दरकता दिख रहा है। अगर ऐसा हुआ, जिसके आसार हैं तो पसमांदा वर्ग मुस्लिम समाज के थोक वोट बैंक से छिटक सकता है। इसी कारण इस समुदाय के वोटों पर राजनीति करने वाले दलों में घबराहट है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का कहना है कि वक्फ संशोधन कानून ने मुस्लिम समुदाय को बांट दिया है। कुछ ऐसे ही विचार मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले अन्य दलों के हैं।
एक बड़ा सवाल यह है कि यदि हिंदू समुदाय जातियों में बंट सकता है, उसे जातीय स्तर पर खंडित करके दल अपनी राजनीतिक रोटी सेंक सकते हैं, सत्ता की दहलीज लांघ सकते हैं तो मुस्लिम वोट बैंक में दरार से क्यों परेशानी होने लगी? परेशानी यही है कि अगर पिछड़ा मुस्लिम समुदाय थोक वोट बैंक से अलग हुआ तो मुस्लिम आधार पर राजनीति करने वाले दलों का सियासी वजूद खतरे में पड़ जाएगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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