स्वतंत्रता के बाद से ही देश में केंद्र-राज्य संबंधों में कुछ तनाव की स्थिति रही है। भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा 558 देसी रियासतों के भारत में विलय की जटिल प्रक्रिया के कारण अनेक राज्यों के मध्य अंतरराज्यीय समस्याएं भी अक्सर गंभीर स्वरुप लेती रही हैं। शुरू में केंद्र और राज्यों में कांग्रेस का शासन होने से इन समस्याओं का समाधान दलीय स्तर पर आसानी से ढूंढ़ लिया जाता था, लेकिन जब राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनने लगीं तो वे केंद्र द्वारा संवैधानिक अतिक्रमण का शिकार होने लगीं। इसका ज्वलंत उदाहरण केरल में नंबूदरीपाद की साम्यवादी सरकार थी जो 1957 में चुनी गई थी। 1959 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के दबाव में उनके पिता प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनुच्छेद 356 के अंतर्गत केरल सरकार को भंग कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया। तबसे अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग, राज्यपालों के हस्तक्षेप, वित्तीय आवंटन में दलीय आधार पर भेदभाव, संघीय सरकार द्वारा शक्तियों के केंद्रीयकरण और गैर संवैधानिक संस्थाओं द्वारा राज्यों के विकास में अनाधिकृत हस्तक्षेप आदि मुद्दे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव बढ़ाते रहे हैं।

राज्यों में भी आपस में कई मुद्दों पर भी अनेक विवाद रहे हैं जैसे असम-नागालैंड सीमा विवाद, मराठी-भाषी क्षेत्रों के कर्नाटक में विलय पर महाराष्ट्र-कर्नाटक विवाद, मनगढ़ पहाडिय़ों के स्वामित्व पर गुजरात-राजस्थान विवाद, कन्नड़ भाषी कासरगोड के केरल में विलय को लेकर केरल-कर्नाटक विवाद, मतदाताओं के पहचान को लेकर ओडिशा-पश्चिम बंगाल विवाद। अभी भी कई राज्यों के बीच सीमा संबंधी विवाद भी उभरते रहते हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों के बीच भी अनेक मसलों पर पारस्परिक विवाद हैं। विवाद होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य है कि ऐसे विवादों के समाधान हेतु संवैधानिक मंचों की उपेक्षा कर उसे गैर संवैधानिक अभिकरणों द्वारा हल करने का प्रयास। नेहरू ने योजना आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद और राष्ट्रीय एकता परिषद जैसे गैर संवैधानिक अभिकरण बनाए जिन्हें संघ-राज्य सबंधों और विभिन्न राज्यों के मध्य संबंधों को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी दी गई। धीरे-धीरे इन अभिकरणों का प्रभुत्व इतना बढ़ गया कि नीति-निर्माता और जनता, दोनों ही भूल गए कि इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 263 के अंतर्गत एक अंतरराज्यीय परिषद का गठन मई 1990 में किया जा चुका है। विडंबना यह रही कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में इसकी केवल दो बैठकें 2005 और 2006 में हुईं। पिछले दस वर्षों से अंतरराज्यीय परिषद की कोई बैठक नहीं हुई है जबकि नियमत: इस परिषद की प्रतिवर्ष तीन बैठकें होनी चाहिए। स्पष्ट है कि विभिन्न राज्यों के आपसी झगड़ों के समाधान और संघीय सरकार से साझा मुद्दों पर विमर्श और शिकायतों के निस्तारण हेतु इस संवैधानिक मंच का सदुपयोग नहीं हुआ। 16 जुलाई 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरराज्यीय परिषद की बैठक बुलाई है जिसमें प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के 17 मंत्रियों के अलावा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री या प्रशासक हिस्सा लेंगे। वे अपनी समस्याएं रखेंगे और विभिन्न मुद्दों पर साझा नीतिगत दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश करेंगे। परिषद राज्यों के मध्य विवादों की जांच, साझा हितों पर विचार-विमर्श और विभिन्न नीतियों और उठाए कदमों पर पारस्परिक समन्वय के लिए सिफारिश करेगी। विडंबना यह है कि यह बैठक ऐसे समय होने जा रही है जब अरुणाचल में कांग्रेस की सरकार को बहाल किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण मोदी सरकार विपक्षी दलों के निशाने पर है। उम्मीद है कि अरुणाचल का मसला अंतरराज्यीय परिषद की बैठक को अधिक प्रभावित नहीं करेगा।

संविधान राज्यों के मध्य विवादों का समाधान करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय को अधिकृत करता है। केवल जल विवाद पर अलग से ट्रिब्यूनल की व्यवस्था है जिसे उच्च न्यायालय का दर्जा मिला है और जिसका निर्णय अंतिम है। उसके फैसले को सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं बदल सकता, लेकिन क्या राज्यों के मध्य विवादों के विधिक समाधान से बेहतर राजनीतिक समाधान नहीं? क्यों न राज्यों और केंद्र में आपसी सहमति से समाधान हो खासतौर पर तब जबकि संविधान सम्मत अंतरराज्यीय परिषद का मंच उपलब्ध है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का वज़ूद सभी राज्यों से मिलकर ही है जैसा कि संविधान का अनुच्छेद 1 कहता है, भारत अर्थात इंडिया, राज्यों का संघ होगा। सभी राज्य भारत रूपी शरीर के अंग जैसे हैं। यदि कोई भी अंग कम विकसित है तो शरीर स्वस्थ नहीं होगा। इसलिए संघीय सरकार की कोशिश यही होनी चाहिए कि बिना राजनीतिक या क्षेत्रीय भेदभाव के सभी राज्यों का समानांतर विकास हो। संभवत: मोदी सरकार ने पीएम-सीएम टीम की अवधारणा इसी दृष्टिकोण से बनाई है। यह जरूरी है कि गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री राजनीतिक द्वेष से उपर उठ कर केंद्र सरकार की इस पहल का लाभ लें और अपने-अपने राज्यों के विकास में आने वाली बाधाओं को अंतरराज्यीय परिषद में गंभीरता से एवं दलगत राजनीतिक हितों से परे हटकर उठाएं।

पीएम-सीएम टीम से विकास को तेज करने का प्रथम संकेत तब मिला जब मोदी सरकार ने 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को मानते हुए केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से बढ़ा कर 42 प्रतिशत कर दी जिससे राज्य अपनी विकास योजनाओं और लक्ष्यों को राज्य की आवश्यकताओं के अनुरूप स्वयं परिभाषित कर सकें। इसी के साथ अगले पांच वर्षों में पंचायत और नगरपालिकाओं को दी जाने वाली राशि को भी बढ़ा कर 2.87 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया। यह वित्तीय प्रयास 'सहयोगी-संघवाद' को और ऊर्जावान बनाएगा। यदि राज्य सरकारों को वित्तीय संकट से मुक्त कर दिया जाए तो उनके पास विकास न कर पाने का कोई बहाना नहीं होगा। मोदी ने सभी राज्यों को विकास की स्पर्धा में शामिल करने का प्रयास किया है। मोदी ने राजनीतिक खेल के नियमों में गुणात्मक बदलाव कर दिया है। राजनीति में रहना है तो विकास करो, नहीं तो बाहर जाओ। भ्रष्टाचार मुक्त और सुशासन युक्त व्यवस्था दो, नहीं तो बाहर जाओ। इस बदलाव से विभिन्न मुख्यमंत्रियों पर जिम्मेदारी आ गई है कि वे भी अपने भ्रष्ट मंत्रियों और नौकरशाहों पर लगाम लगाएं, क्योंकि विकास के मद में धन जितना ज्यादा होगा, भ्रष्टाचार का अंदेशा भी उतना ही ज्यादा होगा। अंतरराज्यीय परिषद वह मंच हो सकता है जो संघीय व्यवस्था में नया प्राण फूंक सके और न केवल संघ और राज्यों के बीच, वरन विभिन्न राज्यों के मध्य भी सहयोग एवं समन्वय का एक नया अध्याय लिख सकें।

[ लेखक डॉ. एके वर्मा, राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं]