धर्मेंद्र प्रधान। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत प्राचीन काल से ही विविधताओं वाला देश रहा है। सदियों से यहां विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएं प्रचलित रही हैं। एक बहु-भाषी देश होने के नाते हमारे पास अनेक भाषाओं और बोलियों का विपुल भंडार है। अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषा का उपयोग होने के बावजूद यह हमें एक साथ बांधता है और एकजुट रखता है। बहुभाषी होने की यह विशेषता देश भर में ज्ञान के प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

हमारी सरकार द्वारा पिछले दिनों लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी इस विचार पर काफी जोर दिया गया कि भारत की बहुभाषी प्रकृति हमारा एक बड़ा आधार है और राष्ट्र के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास के लिए इसके समुचित उपयोग की आवश्यकता है। इस नीति में हर स्तर पर बहुभाषावाद को बढ़ावा देने की सिफारिश की गई है, ताकि विद्यार्थियों को अपनी भाषा में अध्ययन का अवसर मिल सके। सभी भारतीय भाषाओं में शिक्षण सामग्री की उपलब्धता इस बहुभाषी संस्कृति को बढ़ावा देगी और यह ‘विकसित भारत’ के निर्माण में बेहतर योगदान दे सकेगी।

प्रारंभिक शिक्षा स्तर पर ही विद्यार्थियों को स्थानीय और मातृभाषाओं में शिक्षण सामग्री और अध्ययन का अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने यह प्रयास किया है। बच्चे अपनी भाषा में शुरुआती ज्ञान अर्जित करने के बाद स्कूली शिक्षा में अपने ज्ञान को उसी गति से विस्तार दे पाएं, इसके लिए स्थानीय भाषाओं के 52 प्राइमर तैयार किए गए हैं। स्थानीय भाषाओं में पठन सामग्री के रूप में तैयार इन प्राइमरों का उद्देश्य बच्चों को न केवल पढ़ने और लिखने में भाषा की दक्षता प्रदान करना है, बल्कि उनमें रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देना भी है।

अभी 17 राज्यों की 52 स्थानीय भाषाओं में ये प्राइमर तैयार हुए हैं। इनमें आदिवासियों एवं जनजातियों को ध्यान में रखकर उनके समाज की भाषाओं को भी शामिल किया गया है। इस पहल से बच्चों में विषय के प्रति अभिरुचि और स्पष्टता बढ़ेगी। यह बच्चों के ज्ञानवर्धन के साथ-साथ उनके सर्वांगीण विकास में भी बाजी पलटने वाली साबित होगी। साथ ही वर्ष 2047 तक विकसित भारत बनाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाने और हमारे देश के उज्ज्वल भविष्य को आकार देने के लिए एक मजबूत नींव रखने की मोदी की गारंटी को पूरा करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। ये प्राइमर उन बच्चों के लिए विशेष तौर पर लाभकारी होंगे, जिन्हें ज्ञान अर्जन के क्रम में विभिन्न भाषाओं से गुजरना पड़ता है। शिक्षार्थियों के लिए ये प्राइमर किसी भाषा की वर्णमाला के अक्षरों एवं प्रतीकों का उच्चारण करने, पहचानने और समझने की कुंजी के रूप में कार्य करेंगे। यह बच्चों को इन अक्षरों के एक या अधिक सेटों के संयोजन से बने वाक्यों के अर्थों से भी उनका परिचय कराएंगे।

आमतौर पर बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत उनकी स्थानीय भाषा से होती है। स्कूल जाने के पश्चात उन्हें अपनी भाषा-बोली अथवा राज्य विशेष की प्रमुख भाषा में पढ़ाई करनी पड़ती है। ऐसे में उन्हें शुरुआत में ही दिक्कत का सामना करना पड़ता है। यदि स्कूल में ही बच्चों को उनकी अपनी मातृभाषा में समझने की सुविधा प्राप्त हो जाए, तो मूल विषयों के प्रति उनकी समझ और बढ़ेगी। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों की पढ़ाई में ये प्राइमर अत्यंत उपयोगी सिद्ध होंगे। प्राइमर शिक्षा क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तनकारी कदम होने जा रहा है। ये मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा में शिक्षा तक उनकी पहुंच बनाएंगे। इससे बच्चों में गहरी समझ के साथ-साथ आजीवन सीखते रहने की क्षमता का विकास होगा। स्वदेशी संस्कृति से भी उनका जुड़ाव बढ़ेगा।

प्राइमर तैयार करने के लिए ओडिशा की छह भाषाएं या बोली चुनी गई हैं। इनमें गदबा, जुआंग, कुई, किसान, संताली ओडिया और सौरा शामिल हैं। असम से आठ भाषाओं में प्राइमर बनाए गए हैं, जिनमें असमी, बोडो, देओरी, दिमासा, हमार, कार्बी, मिसिंग और तिवा को स्थान मिला है। मणिपुर की छह भाषाओं अनाल, काबुई (रोंगमई), लियांगमई, मणिपुरी, माओ और तंगखुल को चुना गया है। नगालैंड की पांच भाषाओं अंगामी, एओ, खेजा, लोथा और सुमी में प्राइमर बने हैं। सिक्किम की भूटिया, लेपचा, लिंबू, नेपाली, राई, शेरपा और तमांग समेत सात भाषाओं के लिए प्राइमर बने हैं। आंध्र प्रदेश की जातपा, कोंडा और कोया तो अरुणाचल प्रदेश की मिशमी, नयिशी, तांग्सा और वांचो के अलावा झारखंड की खरिया, कुरुख और मुंडारी के साथ ही कर्नाटक की कोदावा और तुलू में प्राइमर बनाए गए हैं। छत्तीसगढ़ की हल्बी, हिमाचल की किन्नौरी, मध्य प्रदेश की कोकू, महाराष्ट्र की खानदेशी, मेघालय की गारो, मिजोरम की मिजो, त्रिपुरा की मोघ और बंगाल की संताली बांग्ला भाषाओं में प्राइमर तैयार किए गए हैं।

शिक्षा केवल डिग्री प्राप्त करने की व्यवस्था मात्र नहीं है, बल्कि चरित्र निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र का निर्माण भी इसका उद्देश्य है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुआ है। देश में आज भी करीब 17 करोड़ बच्चे सामाजिक, आर्थिक और भाषा संबंधी कई अन्य कारणों से पारंपरिक तरीके से स्कूली शिक्षा हासिल नहीं कर पा रहे हैं। इन्हीं परेशानियों का हल राष्ट्रीय शिक्षा नीति में खोजने का प्रयास किया गया है। प्राइमरों के माध्यम से ज्ञान की राह में भाषा संबंधी कठिनाई दूर करने के लिए शिक्षा मंत्रालय पहले भी ऐसे कई कदम उठा चुका है, जिनकी सहायता से बच्चे शिक्षा और ज्ञान, दोनों अर्जित कर सकते हैं। दृष्टि, वाक् शक्ति या सुनने की शक्ति न रखने वाले बच्चों के लिए सरकार ई-कामिक के रूप में एक पुस्तिका ला चुकी है। प्रिया सुगम्यता नाम की यह पुस्तिका बच्चों के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हो रही है।

प्रत्येक सरकार नीति बनाती है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है उस नीति को प्रभावी रूप से धरातल पर उतारना। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को स्वीकार करने के बाद उस पर शत-प्रतिशत अमल हो, यह हमारी सरकार की प्राथमिकता है। बच्चों की बुनियादी साक्षरता मजबूत हो, यही हमारा ध्येय है ताकि हम विकसित भारत के लिए एक सशक्त और विपुल ज्ञान से परिपूर्ण पीढ़ी तैयार कर सकें।

(लेखक केंद्रीय शिक्षा और कौशल विकास एवं उद्यमशीलता मंत्री हैं)