डा. श्रुति मिश्र। इन दिनों देश के कई प्रतिष्ठानों में हिंदी पखवाड़े के अंतर्गत हिंदी को प्रोत्साहन देने वाली गतिविधियां चलाई जा रही हैं। ऐसे में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे भाषाई आयोजन मात्र एक रस्म अदायगी वाले औपचारिक समारोह बनकर न रह जाएं, अपितु देश में हिंदी के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए निरंतर रूप से अभियान जारी रहे। यह सही है कि नई शिक्षा नीति में मातृभाषा की महत्ता स्वीकार की गई है। उसमें उल्लेख है कि प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक पाठ्यक्रम भारतीय भाषाओं में ही तैयार किए जाएं। यह एक बड़ी चुनौती है जिससे शिक्षाविदों और भाषाविदों के व्यापक सहयोग से ही पार पाया जा सकता है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रलय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय करने के पीछे मंतव्य भी यही है कि शिक्षा ही मानव को संसाधन के रूप में विकसित करने का आधार होती है।

नई शिक्षा नीति नागरिकों को मानव संसाधन के रूप में परिवर्तित करने के लिए उनके शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास के साथ ही राष्ट्र की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के सम्मान का भाव स्थापित करते हुए देश की एकता और अखंडता का मार्ग प्रशस्त और सशक्त करती है। मातृभाषा में पाठ्यक्रम तैयार करने के पीछे एक गहरी मनोवैज्ञानिक सोच है। यह विद्यार्थी को उस पाठ्यक्रम से जोड़ती है जिसमें उससे कौशल की अपेक्षा की जाती है न कि भाषाई दक्षता से। यह भी एक तथ्य है कि जब पाठ्यक्रम मातृभाषा से इतर भाषा में तैयार होंगे तो विषय पर विशेषज्ञता के स्थान पर भाषा के अवबोध पर ही विद्यार्थी का ध्यान बंटेगा। यह कौशल विकास की राह में व्यवधान होगा। वैसे संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी से कोई समस्या नहीं, किंतु उसे किसी प्रकार के श्रेष्ठताबोध से न जोड़ा जाए। श्रेष्ठता बोध की इस भावना से मुक्ति पाने में सबसे बड़ा अवरोध भारतीयों का वह तबका है जो इसे अभिजात्य वर्ग से जोड़ता है और अपनी ही भाषा को लेकर हीनता की ग्रंथि पाले रहता है।

विश्व के सभी विकसित आत्मनिर्भर राष्ट्र अपनी भाषा में सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। वहां स्वास्थ्य, शिक्षा, विज्ञान, कानून अथवा तकनीक सब उनकी अपनी मातृभाषा में उपलब्ध है। ऐसे में शिक्षा बच्चों पर कोई अनावश्यक दबाव नहीं डालती, बल्कि अपनी सुगमता से अवधारणात्मक स्तर पर विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाने हेतु मार्ग प्रशस्त करती है। विकसित देशों में नागरिकों द्वारा अपनी मातृभाषा में परस्पर सहज संवाद के अतिरिक्त अपनी भाषा में ही तमाम वैज्ञानिक, दार्शनिक, समाजशास्त्रीय रचनाओं तथा नवीन सिद्धांतों का उसी भाषा में निरूपण करने का कार्य बहुत सहजता से किया जाता रहा है। फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, चीन, दक्षिण कोरिया और इजरायल आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

ये देश अपनी मातृभाषा में पूर्ण गौरव भावना के साथ कार्य कर विश्व के सामने एक प्रतिमान रखते हैं। यह इसलिए भी उल्लेखनीय है कि हमारे पूर्व राष्ट्रपति और प्रख्यात विज्ञानी रहे एपीजे अब्दुल कलाम अपने क्षेत्र में उत्कृष्टता इसलिए प्राप्त कर सके, क्योंकि उन्होंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी। मातृभाषा में बातों को बहुत सुलभता के साथ समझा और संप्रेषित किया जा सकता है। इसका मनोविज्ञान यह होता है कि हम जिस भाषा में सर्वाधिक सहज होते हैं, हमारी चिंतन प्रक्रिया भी उसी भाषा में कार्य कर रही होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि हमें अपनी तकनीक को निरंतर बेहतर बनाना होगा, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि मातृभाषा रोजगार की भाषा बने। यदि मातृभाषी युवक रोजगार के प्रश्न पर किसी विदेशी भाषा की दुहाई देकर छांट दिए जाएं तो यह अपने आप में त्रसद स्थिति ही कही जाएगी। हमारे संविधान में मान्यता प्राप्त सभी भाषाएं अपना गौरवशाली इतिहास रखती हैं। साथ ही इन सभी भाषाओं में विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञों द्वारा अपने-अपने क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियां यह रेखांकित करती हैं कि मातृभाषा में शिक्षा एक सशक्त भारत और सशक्त भविष्य की आधारशिला बनती है।

देश में इन दिनों आत्मनिर्भरता की बहुत चर्चा है। आत्मनिर्भरता वास्तव में प्रत्येक स्तर पर सोची जाने वाली एक राष्ट्रव्यापी सोच है। इस सोच में देश की समृद्धि और विकास में शामिल हर छोटी-बड़ी इकाई का समावेश करना होगा। यदि इसे संभव बनाना है तो उत्पादकता से जुड़े सभी वर्गो के लिए वही भाषा अपनानी होगी जो उन्हें कार्यकुशल, निपुण और कामयाब बनाए। इससे वे अपने कार्यक्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल कर पाएंगे। वास्तव में आत्मनिर्भरता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है शिक्षा। शिक्षा तभी सहज एवं सरल हो सकती है जब वह मातृभाषा में हो। इसे ऐसे समझे कि जब कामगारों और काम कराने वालों की भाषा समान होगी तो उनमें आपस में बेहतर संप्रेषण स्थापित किया जा सकेगा।

हमारे समाज में बहुधा विद्यार्थियों के शैक्षणिक चयन में समाज और परिवार का भारी दबाव होता है। इससे प्राय:विद्यार्थी अपनी इच्छा और अपनी अभिवृत्तियों के अनुसार विषयों का चयन नहीं कर पाते। जब तक उनमें ऐसे चयन की समझ विकसित होती है तब तक बहुत विलंब हो चुका होता है। इसी मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति में विद्यार्थियों के समक्ष यह विकल्प रखा गया है कि यदि वे किसी पाठ्यक्रम से दूसरे पाठ्यक्रम में प्रवेश लेना चाहें तो ले सकते हैं।

यह नीति कौशल विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक विद्यार्थी जब अपनी अभिवृत्ति और रुचि के अनुसार चयनित विषय में रमता है तो उसमें सहज ही कौशल विकसित हो सकता है। स्मरण रहे कि किसी भी भाषा के विस्तार की निर्भरता उसके प्रयोग पर आधारित होती है। भाषा का जितना प्रयोग होगा उसकी दीर्घजीविता भी उतनी ही अधिक होगी। कई जनजातीय भाषाएं केवल प्रयोग न होने के कारण ही विलुप्त हो गईं। भाषा संस्कृति की वाहक होती है। संस्कृति अक्षुण्ण बनी रहे उसके लिए भाषा का जीवित रहना अत्यंत आवश्यक है।

(लेखिका बीएचयू में प्रोफेसर हैं)