उमेश चतुर्वेदी: अक्सर विवादों में रहने वाले कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने फिर से एक नया विवाद छेड़ा है। अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘मेमोअर्स आफ ए मैवरिक’ में उन्होंने पीवी नरसिंह राव को ‘भाजपा का पहला प्रधानमंत्री’ बता दिया। कांग्रेस की राजनीतिक विरासत में राव को जिस प्रकार उपेक्षित किया गया, उससे अय्यर की बात पर कोई हैरानी नहीं। देखा जाए तो अय्यर एक तरह से गांधी-नेहरू परिवार के सोच को ही आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस के प्रथम परिवार ने खुलकर कभी ऐसे शब्द नहीं बोले, लेकिन राव के प्रति उसकी धारणा कुछ ऐसी ही रही है।

2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने एक मुस्लिम बहुल इलाके में राव पर आक्षेप लगाते हुए कहा था कि अगर उनके परिवार का प्रधानमंत्री होता तो 1992 में विवादित ढांचे का ध्वंस नहीं हो पाता। अय्यर नेहरू-गांधी परिवार के नजदीकी हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में वह राजीव गांधी के सहयोगी रहे और बाद में गांधी-नेहरू परिवार की मेहरबानी से मंत्री भी बने। ऐसा लग रहा है कि उनका हालिया शिगूफा भी कांग्रेस के प्रथम परिवार को खुश करने की कोशिश ही है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि कांग्रेस और उसके नेताओं के प्रयासों से क्या राव की महत्ता खत्म हो जाएगी?

गांधी-नेहरू परिवार की छाया में भारत समाजवादी आर्थिकी सोच पर खड़ा था। ऐसी नीतियों का नतीजा ही कहेंगे कि 1990 तक आते-आते भारत को अपनी आर्थिकी को चलाने के लिए सोना गिरवी रखकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से कर्ज लेना पड़ा। ऐसी विकट परिस्थिति में सत्ता मिलने के बाद कितने लोग देश को उससे उबार पाते। तब राव ने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाने का राजनीतिक जोखिम लिया और एक झटके से भारतीय अर्थव्यवस्था को समाजवादी दर्शन से मुक्त कर दिया।

अगर देश आज दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद जल्द ही तीसरी आर्थिकी बनने की राह पर अग्रसर है तो उसकी बुनियाद के शिल्पकार नरसिंह राव ही रहे। देश में एक तबका ऐसा है, जिसकी नजर में सिर्फ गांधी परिवार ही देश के लिए सब कुछ है। किसी और ने कोई उपलब्धि हासिल की हो तो उसे खारिज करके ‘संघी’ बता दिया जाता है। राव के मामले में अय्यर की कोशिश भी कुछ ऐसी ही है।

‘हाफ लायन’ शीर्षक से राव की जीवनी लिखने वाले विनय सीतापति ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि इतिहास और कांग्रेस ने नरसिंह राव के साथ न्याय नहीं किया। राव की छवि शांत, संवेदनशील और बौद्धिक नेता की थी। कांग्रेस को जब भी उनकी जरूरत महसूस हुई तो उन्हें महत्वपूर्ण दायित्व दिया। उन्होंने पार्टी और देश को निराश भी नहीं किया। केवल पंजाब में आतंक की आग को काबू करने में ही नहीं, बल्कि दार्जिलिंग के गोरखा और मिजोरम के अलगाववादी आंदोलनों से निपटने में भी राव की भूमिका अहम रही।

आपरेशन ब्लू स्टार के वक्त राव ही गृहमंत्री थे। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ने सोनिया गांधी को अपना अध्यक्ष मान लिया। हालांकि, तब बनी परिस्थितियों के चलते सोनिया गांधी ने वह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उस समय कांग्रेस मुखिया पद के कई दावेदार थे। फैसला सोनिया गांधी को लेना था। नरसिंह राव का नाम इस सूची में नहीं था। लंबे अर्से तक नेहरू-गांधी परिवार के वफादार रहे नटवर सिंह की आत्मकथा के अनुसार उस समय नरसिंह राव का नाम इंदिरा गांधी के सचिव रहे पीएन हक्सर ने सुझाया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरसिंह राव ने नेहरू-गांधी परिवार को खुश रखने के लिए देश में आर्थिक तंगी के बावजूद राजीव गांधी फाउंडेशन को सौ करोड़ रुपये का अनुदान दिया, जिस पर उस समय विपक्ष ने हंगामा भी किया था। इसी फाउंडेशन के मुख्यालय में अय्यर की उस हालिया किताब का विमोचन हुआ, जिसमें उन्होंने राव पर निशाना साधा। इस अवसर पर सोनिया गांधी भी उपस्थित थीं।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरसिंह राव नेहरू-गांधी परिवार की आंखों में खटकने लगे। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि राव बतौर प्रधानमंत्री स्वतंत्र रूप से फैसले लेते थे। राजनीतिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दौर में पांच साल तक सरकार चलाना राव जैसे रणनीतिक कौशल वाले महारथी के बूते की ही बात थी। हालांकि, सत्ता से विदाई के बाद पार्टी ने उनकी उपेक्षा शुरू कर दी। दिसंबर, 2004 को दिल्ली एम्स में राव के निधन के बाद भारतीय राजनीति का विद्रूप चेहरा सामने आया। उस समय वही मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे, जिन्हें राव राजनीति में लेकर आए थे। इसके बावजूद राव को सम्मानजनक विदाई नसीब नहीं हुई। दिल्ली में उनका स्मारक न बन पाए, इसलिए उनके शव को हैदराबाद रवाना कर दिया गया। जिस कांग्रेस के वह सात साल अध्यक्ष रहे, उसके मुख्यालय के बाहर उनका शव रखा रहा, लेकिन उसे भीतरी परिसर में रखने नहीं दिया गया।

राव को आखिरी वक्त में सम्मान न मिलने की वजह खुलकर तो नहीं बताई गई, लेकिन कांग्रेस ने संकेत दिया कि अयोध्या के विवादित ढांचे के ध्वंस का ‘जिम्मेदार’ होने के नाते उन्हें तवज्जो नहीं दी गई। कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों ने यह भी माना कि उनके साथ ऐसा व्यवहार इसलिए हुआ, क्योंकि सत्ता में रहते हुए उन्होंने कांग्रेस के प्रथम परिवार को खास तवज्जो नहीं दी थी। अय्यर और कांग्रेस को भी याद रखना होगा कि सूचना और संचार क्रांति के दौर में तथ्यों को छुपाना आसान नहीं। नरसिंह राव के व्यक्तित्व को लांछित करके किसी के लिए खुद को बड़ा साबित करना आसान नहीं। तेलंगाना और आंध्र में कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। अगर वहां कांग्रेस को इसकी कीमत चुकानी पड़े तो हैरानी नहीं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)