गिरीश्वर मिश्र। भारतीय शिक्षा को अब भारतीय ज्ञान परंपरा के रूप में ढालने के लिए पहल की जा रही है। इसे लेकर आम आदमी के मन में कुछ सवाल खड़े हो रहे हैं। जैसे भारतीय होने का क्या अर्थ है? जो ज्ञान परंपरा स्वतंत्र भारत में चल रही है, वह किस अर्थ में भारतीय नहीं है या कम भारतीय है? भारतीय ज्ञान परंपरा का स्वरूप क्या है? वह किस रूप में दूसरी ज्ञान परंपराओं से अलग है?

इस भारतीय ज्ञान परंपरा की विशिष्टता क्या है, जो हम इसकी ओर मुड़ें? आज के ज्ञान-युग में सामर्थ्यशाली होने के लिए इन पर विचार करना जरूरी है। आखिरकार यह पूरे समाज की मनोवृत्ति, आचरण और देश के सांस्कृतिक अस्तित्व का सवाल है। शिक्षा की दृष्टि से यह एक गंभीर तथ्य हो जाता है कि आज हम आलोचनात्मक रूप से चिंतनहीन और सृजनात्मकता की दृष्टि से पंगु होते जा रहे हैं।

राजनीति में आडंबर और मानवीय मूल्य दृष्टि की बढ़ती कमी आज सबको खटक रही है। सामाजिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में चिंताएं बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए न्याय व्यवस्था में आज तक अपेक्षित सुधार नहीं लाया जा सका है। नागरिक जीवन से जुड़ी व्यवस्थाएं चाक चौबंद नहीं हैं। ऐसे में शिक्षा पर बहुतों की नजरें टिकी हैं और उसमें सुधार से बड़ी आशाएं जगती हैं।

नई शिक्षा नीति के आने के बाद विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम भारतीय ज्ञान-परंपरा में ढल रहे हैं और आमजन के बीच भी इसे लेकर उत्सुकता बढ़ी है, पर शिक्षा में भारतीयता की इस सतही उपस्थिति से आगे बढ़ कर गंभीर और व्यवस्थित रूप इस उपक्रम को अभी तक नहीं मिल सका है।

यदि पश्चिम के खर्चीले और अंशत: दिशाहीन तथा आयातित ज्ञान को थोपे जाने से मुक्ति की इच्छा है और अपने देश के ज्ञान, कौशल और अस्मिता को बंधक स्थिति से छुड़ाने का मन है तो हमें शिक्षा में बदलाव लाना ही होगा। देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मानसिक स्वराज जरूरी है और इसके लिए अपनी ज्ञान-व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा, क्योंकि मानसिक गुलामी कई तरह से देश को आहत करती आ रही है, जिसका बहुतों को पता भी नहीं होता। इसके लिए शिक्षा में भारतीय दृष्टि की विवेकपूर्ण संगति के सिवाय कोई और मार्ग नहीं है। भारत की शिक्षा को भारतीय दृष्टि में स्थापित करना भारत और विश्व, दोनों के ही हित में होगा।

ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विस्तार के पश्चिमी माडल का खोखलापन दिन-प्रतिदिन उजागर हो रहा है। अविरल चलती हिंसा, जलवायु परिवर्तन की बढ़ती मुश्किलें, तीव्र होती गलाकाट प्रतिस्पर्धा, पर्यावरण का भीषण प्रदूषण और मनुष्यता की जगह बाजार का बढ़ता प्रभुत्व ज्ञान के पश्चिमी नेताओं के सोच पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। यह सारा विकास मनुष्यता के विनाश का कारण बन रहा है। इसकी जगह भारतीय ज्ञान परंपरा मनुष्य की क्लेशों से मुक्ति की कामना करती है, परंतु खेद की बात यह है कि बहुतों के मन में इस ज्ञान परंपरा की वही अस्पष्ट छवि अभी भी बरकरार है, जो कभी अंग्रेजों ने बनाई थी और जिसे करीब दो सदियों लंबे औपनिवेशिक दौर में भारतीयों ने बहुत हद तक आत्मसात कर लिया है।

सच्ची बात यह है कि भारतीय ज्ञान परंपरा ज्ञान-विज्ञान भी है और जीवन-दर्शन भी। भारतीय ज्ञान परंपरा कोई काल में दफन वस्तु नहीं है। यह जीवित है और विकसित भी होती रही है। व्यक्तिवादी, अमूर्त, मात्रात्मक और एकांत अनुशासनों की पक्षधर पश्चिमी ज्ञान परंपरा में सभी विषय स्वतंत्र ढंग से अलग-अलग विकसित हुए हैं।

इसके विपरीत भारतीय ज्ञान परंपरा समेकित और अंत:क्रियात्मक है। इस प्रतिमान में परस्पर अवलंबन और पूरकता है। न्याय, मीमांसा, आयुर्वेद और योग आदि ज्ञान की सुनम्य विधियों, सुचिंतित तर्क और अनुभव का उपयोग करते हैं और इनके बीच आवाजाही भी है। इस परंपरा में मनुष्य को प्रकृति के दोहन-शोषण का एकाधिकार नहीं है, क्योंकि मनुष्य पर्यावरण और ब्रह्मांड में स्थापित है, न कि उसका केंद्र है। ज्ञान का सामाजिक संदर्भ में स्थित होना और नैतिक मूल्यों पर टिका होना भारतीय ज्ञान परंपरा को आधुनिक विज्ञान की दृष्टि को पूर्णता तक ले जाता है।

दुखद है कि शिक्षा नीति-2020 के प्रविधान के बाद भी औपनिवेशिक प्रभाव में पश्चिमी ज्ञान को जहां सार्वभौम माना जा रहा है वहीं भारतीय ज्ञान को स्थानीय मान कर हाशिए पर डाला जा रहा है। न भूलें कि भारतीय ज्ञान परंपराएं पुरावशेष न होकर लोक-जीवन में कई रूपों में सजीव रूप से विद्यमान हैं। पर्यावरण संरक्षण, नैतिक आचरण, औषधीय उपाय तथा सामाजिक-सांस्कृतिक ज्ञान की सामग्री आमजन, जनजातियों और गावों में बिखरी पड़ी हैं। जरूरी दस्तावेजीकरण, संरक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था के अभाव में ये विनष्ट हो रही हैं।

इस दृष्टि से वाचिक परंपराओं को भी शिक्षा में समाहित करना होगा। भारतीय ज्ञान परंपरा शरीर मन और पर्यावरण के आवश्यक संतुलन पर बल देती है। यह हमारे सभ्यता के उत्कर्ष का साधन बन सकती है, बशर्ते हम साहस और विवेक के साथ काम करें। यह परंपरा सब किसी की है और सबके लिए है। इसे पुनर्जीवित करने के लिए लोकतांत्रिक तौर पर समावेशी होना होगा। वस्तुतः एक ऐसे पुनर्जागरण की बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी, जो उपनिवेश से मुक्ति दिला सके। इसे एक बौद्धिक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए।

(लेखक पूर्व कुलपति हैं)