डॉ. एके वर्मा

बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में होने वाले नगरपालिका चुनावों में 22 साल पुरानी रणनीति को तोड़ते हुए पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। यह उनकी चिंता को उजागर करता है। पिछले तीन चुनावों से मिल रही शिकस्त से वह संकट में हैं। 2012 में वह उत्तर प्रदेश में सत्ता गवां बैठीं। 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा ने देश में सबसे ज्यादा-503 सीटों पर चुनाव लड़ा पर एक भी सीट जीत नहीं सकी। अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी केवल 19 सीटें जीत कर मायावती और पार्टी, दोनों के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। अप्रैल 2018 में मायावती की राज्यसभा की सदस्यता समाप्त हो रही है। वैसे तो राज्यसभा में कुल 68 सीटें रिक्त हो रहीं हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश कोटे से केवल 10 सीटें खाली होंगी। उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सदस्य चुने जाने के लिए प्रत्येक प्रत्याशी को इस बार 38 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी। 47 विधायकों के बलबूते सपा केवल एक और बसपा कोई भी सीट नहीं जीत सकेगी, जबकि भाजपा, अपना दल और सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी के कुल 325 विधायक 8 सीटें निश्चित रूप से जीत लेंगे। लगातार मिल रही शिकस्त से मायावती कुछ भ्रमित हो गई लगती हैं। अपने सलाहकारों के कारण वह कुछ गफलत में हैं। उनको लगता है कि वह दलितों की एक मात्र नेता हैं और अन्य किसी दल को दलित हितों की बात करने का नैतिक अधिकार नहीं है जबकि हकीकत यह है कि मायावती ने संपूर्ण दलित समुदाय के लिए कभी काम नहीं किया। उनकी राजनीति केवल जाटवों पर ही केंद्रित रही है। गैर-जाटव करीब 65 जातियां जैसे वाल्मीकि, पासी, खटिक, कोरी, मुसहर, डोम, हबूड़ा, कंजर आदि बराबर उनकी उपेक्षा का शिकार रही हैं। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार केवल 49 फीसद दलित ही उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाग लेते हैं। वे 51 फीसद दलित कौन हैं जो चुनावों में भाग नहीं लेते और क्यों? क्या मायावती ने कभी यह जानने की कोशिश की? क्यों वह यह मानती हैं कि ऐसे दलित अन्य पार्टियों की ओर नहीं जा सकते? जहां जाटवों के 70 से 80 फीसद वोट मायावती को मिलते हैं वहीं गैर-जाटवों में उनको वोट देने का वैसा उत्साह नहीं।
उत्तर प्रदेश के हालिया चुनावों में बसपा को गैर-जाटवों के केवल 37 फीसद वोट मिले, वहीं भाजपा को जाटवों के 8 फीसद और गैर-जाटवों के 40 फीसद वोट मिले। यह इस बात का संकेत है कि दलितों पर मायावती का एकाधिकार नहीं और यह वर्ग भाजपा की ओर आशा से देख रहा है। शायद मायावती को यह भी भ्रम है कि दलितों के लिए विचारधारा, विकास और विमर्श से जरूरी ‘दलित-की-बेटी’अर्थात वह स्वयं हैं। यद्यपि वह दलित प्रतीकों और महापुरुषों की आड़ लेती हैं, लेकिन जिस तरह कांग्रेस ने गांधी और सपा ने लोहिया को प्रयोग कर दरकिनार कर दिया, ठीक उसी प्रकार मायावती ने भी अंबेडकर और कांशीराम का राजनीतिक स्वार्थ हेतु प्रयोग कर उन्हें किनारे किया अन्यथा वह बामसेफ और डीएस-4 जैसे संगठनों को खत्म न होने देतीं। घनी दलित आबादी वाले राज्यों पंजाब(32 फीसद), हिमाचल (25.2 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (23.5 प्रतिशत) और तमिलनाडु (18 प्रतिशत) में मायावती अपना जनाधार नहीं बना सकी हैं। यह मायावती की कमजोरी रही है कि वह दलित समर्थन को जैसे अपना हक मान कर चलती हैं। उनको यह मुगालता भी है कि दलित आज भी विकास और आर्थिक उन्नयन की जगह सामाजिक पहचान को ज्यादा तरजीह देता है।
पिछले 70 वर्षों में दलित समाज में बहुत कुछ बदल गया है। उनकी सोच, संस्कार, शिक्षा और सामाजिक स्थिति बदल गई है। उनमें समाज में आगे बढ़कर कुछ करने का जज्बा है और उसके लिए वे दलित समाज के नेताओं को भी कर्मठता, योग्यता और समावेशी राजनीति की कसौटी पर कसने से परहेज नहीं करते। उनके लिए कोई भी पार्टी अछूत नहीं। जिस बुराई का वे सामाजिक स्तर पर विरोध करते हैं उसका राजनीतिक स्तर पर समर्थन कैसे कर सकते हैं? मायावती सोशल इंजीनियरिंग की पुरोधा के रूप में जानी जाती हैं। 2007 के चुनावों में उन्हें दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का लाभ भी मिला। वह बहुजन से सर्वजन और जातिवादी से समावेशी राजनीति की ओर चलीं, लेकिन उस प्रयोग को आगे न ले जा सकीं। उत्तर प्रदेश में ही उसे और दृढ़ करने के बजाय उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में एक विशेष भूमिका की महत्वाकांक्षा पाल ली और दिल्ली निकल पड़ीं। पिछले पांच वर्षों में कई राज्यों में तमाम कोशिश के बाद भी बसपा कहीं पनप नहीं पाई। हाल के उत्तर प्रदेश के चुनावों में उन्होंने दलित-ब्राह्मण की जगह दलित-मुस्लिम गठजोड़ की कोशिश कर सबको चकित कर दिया। परिणाम बेहद निराशाजनक रहा। सौ मुस्लिमों को टिकट देने के बावजूद बसपा का मुस्लिम वोट बढ़ा नहीं। अपनी इस गलती को छुपाने के लिए अब उन्होंने चुनाव आयोग पर ही उंगली उठा दी और ईवीएम की निष्पक्षता पर संदेह जाहिर करने के साथ मतपत्र से चुनाव करने की मांग कर रही हैं। यह बहुत ही बचकाना हरकत है, क्योंकि मतपत्र के द्वारा चुनावों को हम सभी देख चुके हैं। तब बड़े पैमाने पर धांधली होती थी और उसे ही रोकने के लिए ईवीएम का प्रयोग शुरू किया गया।
आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि मायावती या अखिलेश या फिर केजरीवाल जीतें तो ईवीएम ठीक, लेकिन भाजपा जीते तो ईवीएम में गड़बड़ी? अगर ईवीएम में गड़बड़ी थी तो उत्तर प्रदेश में भाजपा गठबंधन के साढ़े तीन करोड़ (35862286) के मुकाबले अन्य दलों को लगभग पांच करोड़ (49653737) वोट कैसे मिले? फिर पंजाब में कांग्रेस कैसे जीती और भाजपा-अकाली गठबंधन इतनी बुरी तरह क्यों हारा? अब मायावती का नया शिगूफा यह है कि भाजपा को हराने के लिए गैर-भाजपा दलों का महागठबंधन बनाया जाए।
क्या विचारधारा, नेतृत्व, विकास और सुशासन के मुद्दे कोई मायने नहीं रखते? भाजपा को हटाने की राजनीति नकारात्मक राजनीति है। कोई इसकी अनदेखी कैसे कर सकता है कि देश की जनता ने प्रचंड बहुमत से भाजपा को देश की बागडोर सौंपी है। लोकतंत्र वैकल्पिक राजनीति का अधिकार देता है। आखिर हमारे नेताओं को कब समझ में आएगा कि राजनीतिक स्पर्धा का एक सकारात्मक आधार होना चाहिए। उन्हें सुशासन और विकास के लिए और बेहतर नीतियों, कार्यक्रमों और निर्णयों के वैकल्पिक मॉडल के साथ जनता के पास जाना चाहिए। जनता तो सभी को मौका देती है। उसने उत्तर प्रदेश में 2007 में बसपा, 2012 में सपा और 2017 में भाजपा को मौका दिया। इसी तरह केंद्र में भी वह पार्टियों को बदलती रहती है। क्या राजनीतिक दलों को कभी समझ में आएगा कि चुनाव केवल सत्ता के लिए नहीं वरन जनता की सेवा और देश के सुशासन के लिए एक माध्यम और एक अवसर है?
मायावती विचारधारा विहीन, दलीय नेतृत्व विहीन, दलित आंदोलन विहीन और दिशा विहीन हो गई हैं। यदि वास्तव में उनको अपना जनाधार वापस लाना है और पार्टी का राष्ट्रीय स्वरूप बचाए रखना है तो उन्हें अपनी 2007 वाली सोशल इंजीनियरिंग पर आधारित समावेशी राजनीति और सर्वसमाज की ओर लौटना होगा
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी अॉफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं ]